ईश्वर – एक बार की बात है एक बच्चा अपनी माँ के साथ मिठाई की दुकान पर पहुंचा.
दुकान में वो अलग-अलग तरह की मिठाईयां देखता है. मिठाईवाला उस बच्चे की मनमोहक मुस्कान को देखकर उससे कोई भी मिठाई ले लेने को कहता है. बच्चा उसकी बात को टाल देता है. अपनी माँ के कहने पर भी वो माना नहीं. तब मिठाईवाले ने खुद मिठाइयां उठाईं और उसे देने लगा तो उस बच्चे ने तुरंत अपने स्कूल के बस्ते में इन मिठाईयों को डलवा दिया. दुकान से बाहर आने पर जब उसकी माँ ने उससे पूछा कि जब उस मिठाईवाले ने आपको मिठाईयां दीं तब तो आपने ली नहीं फिर जब मिठाईवाले ने खुद दी तो आपने ले ली.
ऐसा क्यों?
तो उस बच्चे ने कुछ ऐसा जवाब दिया जिसके बारे में हमें भी सोचना चाहिए. उस बच्चे ने अपनी माँ से कहा कि मेरी मुट्ठी बहुत ही छोटी है और दुकानदार की बड़ी इसीलिए अगर मैं लेता तो कम ही ले पाता.
यही हाल हमारा भी है. हमारी मुट्ठी बहुत छोटी है और प्रभु की बहुत बड़ी.
इसी तरह हमारी सोच बहुत छोटी है और प्रभु की बहुत बड़ी. यानी की ईश्वर ने हमें जो भी दिया है वो हमारी सोच से कहीं ज़्यादा है. याद करिए अगर आप आज से 25 वर्ष पहले अपनी इच्छाओं के अनुसार वस्तुओं को खरीदने की सूचि बनाते तो शायद वो आज के हिसाब से सूचि छोटी ही बनती. हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि प्रभु या प्रकृति ने इतना कुछ हमें दिया है जो हमारी कल्पना से भी परे है. प्रभु की सोच हमारे लिए बहुत ही व्यापक एवं विशाल है.
श्रीमदभागवत गीता के मध्य में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो अनन्य भाव से मेरा निरंतर चिंतन करते हुए भजते हैं उनको योग, सांसारिक एवं आध्यात्मिक सुख मैं स्वयं ही प्राप्त करवा देता हूँ. ध्यान रहे कि भजना सज़ा नहीं, मज़ा है. ये बात मात्र प्रभु के विषय में ही नहीं बल्कि हर वस्तु व विषय पर लागू होती है. आप जिस भी वस्तु या विषय को भजें, उसे पूर्णता से भजें. अर्थात हम जो भी कार्य करें, उसे पूरे विश्वास से करें. भजना अर्थात उसे जीवन में अंगीकार कर लेना. यानी आपके और उस वस्तु विषय में कोई भी अंतर न रहे.
अगर कोई ऐसा सोचता है कि आध्यात्म में आने के बाद इस जीवन का सफ़र थम जाता है या फटे बादल की तरह व्यर्थ हो जाता है. इस विचार का जवाब स्वयं श्रीकृष्ण गीता में देते हैं कि जो भी मनुष्य अपने जीवन में श्रेष्ठ नियमों को अपनाता है, उसकी कभी दुर्गति नहीं होती. जब भी कोई कार्य करें हमारी कोशिश रहनी चाहिए कि हम अपना कार्य पूरी दक्षता से करें. वहीं, कर्म के फल को हमें प्रभु को अर्पित कर देना चाहिए. इसी के साथ हमें उस सोच को कभी नहीं भूलना चाहिए कि हमारी मुट्ठी बहुत ही छोटी है व ईश्वर की मुट्ठी बहुत ही बड़ी.
महर्षि अरविंद ने कहा है कि सफलता को निमंत्रण देने के लिए उत्साह का पता अपने पास रखिए. इसीलिए हमें अपने लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु खुद पे भरोसा रखने के साथ ही हमेशा सकारात्मक दिशा में सोचना चाहिए कि जो भी ईश्वर करेगा हमारे भले के लिए ही करेगा.
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