उत्तर प्रदेश की हस्तिनापुर और सुल्तानपुर सदर दो ऐसी विधान सभा सीट हैं चुनाव में जिस भी दल ने इनको जीता है प्रदेश में उसी दल की सरकार बनी है.
यह हस्तिनापुर और सुल्तानपुर की बातें कोई हवा हवाई नहीं है बल्कि आंकड़े स्वयं इसकी तस्दीक करते हैं.
बात हस्तिनापुर की करे तो 2012 में इस सीट से प्रभुदयाल बाल्मिकी सपा के टिकट पर चुनाव जीते थे. जैसा कि सबको जानकारी है कि 2012 में सपा ने अखिलेश यादव के नेतृत्व में सरकार बनायी, जो वर्तमान में चल रही है.
ठीक इसी प्रकार 2012 में समाजवादी पार्टी के युवा नेता अरुण कुमार वर्मा सुल्तानपुर सदर से चुने गए और अखिलेश यादव के नेतृत्व में यूपी में एसपी की सरकार बनी.
वर्ष 2007 के विधान सभा चुनाव में हस्तिनापुर से बसपा के टिकट पर योगश वर्मा जीते तो सूबे में मायावती के नेतृत्व में बसपा की सरकार बनी. वहीं दूसरी ओर सुल्तानपुर सदर सीट बसपा ने नाम की और प्रदेश में सरकार बनाई.
गौरतलब है कि 2009 के परिसीमन से पहले सुल्तानपुर सीट का नाम जयसिंहपुर था.
इसी प्रकार वर्ष 2002 में सपा से हस्तिापुर सीट से प्रभुदयाल बाल्मिकी जीते तो प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सपा की सरकार बनी.
वही वर्ष 1996 में हस्तिनापुर सीट से भाजपा के अतुल खटीक जीते तो राज्य में भाजपा की सरकार बनी.
बता दें कि अतुल खटीक को किसी कारण भाजपा का चुनावी सिंबल नहीं मिल पाया था लेकिन वे भाजपा के उम्मदीवार थे.
1992 और 95 में किसी कारण से हस्तिानापुर सीट पर चुनाव नहीं हो पाया था.
बहराल, 1989 में यहां जनता दल के प्रत्याशी झग्गड़ सिंह चुनाव जीते तो सूबे में जनता दल की सरकार थी और उसके मुखिया थे मुलायम सिंह यादव. 1985 में इस सीट से कांग्रेस के हरशरण सिंह जीते थे यहां कांग्रेस की सरकार बनी.
1980 में यह सीट कांग्रेस के पास थी तो प्रदेश कांग्रेस कर सरकार बनी. 1977 में पूरे देश में कांग्रेस विरोधी लहर थी तो हस्तिनापुर सीट भी जनता पार्टी ने जीती और प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार बनी.
इसी प्रकार सुल्तानपुर सदर विधानसभा क्षेत्र को साल 1969 से लकी माना जाता है. यह सीट इतनी शुभ मानी जाती है कि जो पार्टी यहां से चुनाव जीतती है, वही यूपी की सत्ता पर काबिज होती है.
इस सीट के भाग्यशाली होने की कहानी 1969 से शुरू होती है, जब कांग्रेस ने यहां से जीत हासिल की और पार्टी ने प्रदेश में सरकार बनाई. 1974 में भी यहां से कांग्रेस जीती और उसकी सत्ता बरकरार रही. 1977 में जब पूरे देश में जनता पार्टी की लहर थी, इस सीट से भी जनता पार्टी के प्रत्याशी मकबूल हुसैन खान विजयी हुए और कांग्रेस प्रदेश की सत्ता से बेदखल हो गई.
1980 में यह सीट फिर कांग्रेस के पास चली गई. पार्टी के उम्मीदवार देवेंद्र पांडे ने यह सीट जनता पार्टी से छीनी और कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो गई.
1985 में भी यही कहानी दोहराई गई, कांग्रेस का ही विधायक और कांग्रेस की ही सरकार. 1989 में जनता दल का उम्मीदवार चुनाव जीता और प्रदेश में पार्टी की सरकार बनी.
1991 में पहली बार यह सीट बीजेपी के खाते में आई और पार्टी पहली बार यूपी की सत्ता पर काबिज हुई. 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद बीजेपी की सरकार गिर गई और अगले साल हुए उपचुनाव में लोगों ने समाजवादी पार्टी से अपना विधायक चुना.
समाजवादी पार्टी ने बीएसपी के साथ गठबंधन कर यूपी पर राज किया. इसके बाद 1996 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी के प्रत्याशी राम रतन यादव ने यह सीट जीती, पर प्रदेश में किसी को स्पष्ट जनादेश नहीं मिला. छह महीने बाद बीएसपी और बीजेपी ने अपने पहले गठबंधन के तहत यूपी में सरकार बनाई.
2002 के चुनाव में भी यह सीट बीएसपी के ही पास रही और फिर से बीएसपी-बीजेपी की गठबंधन सरकार ने सत्ता अपने हाथों में ली.
इसलिए इस बार भी लोगों की नजरें हस्तिनापुर और सुल्तानपुर सीटों पर गड़ी हैं.
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