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गुलज़ार साहब… इस दुनिया में आप जैसी रूहें कम ही आती हैं

आप सब से एक सच बात कहूँ तो मैं पिछले कई घंटों से गुलज़ार साहब के बारे में लिखने की कोशिश कर रहा हूँ, लेकिन यकीन मानिए, मुझे ढंग का एक लफ्ज़ भी नहीं सूझ रहा हैं.

गुलज़ार साहब के बारे कहाँ से शुरु करू, क्या लिखूं अभी तक कुछ भी समझ नहीं पा रहा हूँ.

गुलज़ार साहब के बारे में लिखना सच में बहुत मुश्किल काम हैं. यह बिलकुल वैसी ही बात हैं कि “आप किसी रौशनी को ये बताएं की वो कितनी रौशन हैं”

सच कहूँ तो मेरी औकात ही नहीं हैं उनके बारे में कुछ कहने की. मेरी उमर से दोगुना तो उनका तजुर्बा हैं, तो मेरी क्या बिसात कि मैं गुलज़ार साहब के लिए कुछ भी लिखूं. अपनी पूरी जिंदगी उन्होंने लोगों को सिर्फ दिया ही हैं, फिर वह चाहे गीत के बोल के रूप में हो या इंसानी एहसासों को बड़ी बारीकी से सिनेमा के परदे में पिरोने के रूप में या फिर अपने एहसासों को नज़्म की शक्ल देकर किताबों के ज़रियें लोगों तक पहुचाना हो, गुलज़ार साहब बिना किसी उम्मीद के पूरी दयानतदारी से दुनिया को बस देते ही आये हैं, तो उनके बारे में कुछ भी कह पाना मेरे बस का नहीं हैं.

इसलिए सोचा कि आप सब को एक खास क़िस्सा सुनाऊँ जो मेरे साथ हुआ था जिसके बाद गुलज़ार मेरे लिए “गुलज़ार साहब” हो गए.

मुझे मुंबई आये कुछ 4-5 महीने ही हुए थे, जब मैं अपने पहले शो के लिए काम कर रहा था. वह नवम्बर 2011 की ठण्ड थी. यशराज स्टूडियो के स्टूडियो नंबर-2 की सुबह और 9 बजे का कॉल टाइम. 9बजे के आस-पास शो से जुड़े सभी लोग आ चुके थे. शो का रिहर्सल चल रहा था और शो के एंकर विक्रम चन्द्रा अपना एंकरलिंक रिहर्स कर रहे थे. एक स्पॉट लाइट को छोड़ कर बाकि सब लाइट बंद थी. तभी स्टूडियो का दरवाज़ा खुला और ऊपर से नीचे तक पुरे सफ़ेद लिबास में एक शख्स अंदर आया और स्टेज के नीचे रखी कुर्सियों में से एक पर जाकर बैठ गया.

रिहर्सल के कारण पुरे स्टूडियो में ख़ामोशी थी कि तभी किसी की तेज़ आवाज़ उस ख़ामोशी को चीरती हुई सुनाई दी- “अरे गुलज़ार साहब..आप यहाँ क्यों बैठे हैं?”

इस आवाज़ से विक्रम चंद्रा भी अपना रिहर्सल रोककर स्टेज के नीचे आ गए और गुलज़ार साहब का पैर छूते हुए बोले- “गुलज़ार साहब, आप यहाँ क्यों बैठ गए, सीधे ऊपर आते स्टेज पर…”

कुछ देर की ख़ामोशी के बाद एक भारी आवाज़ मेरे कानों में आई-“विक्रम जी आपके रिहर्सल में रुकावट आती, इसलिए मैं  नीचे ही इंतज़ार करने लगा”.

गुलज़ार साहब के इस जवाब के बाद विक्रमचंद्रा उन्हें स्टेज में ले गए और शो शुरू हुआ.

हर 1 घंटे के बाद शो में ब्रेक लिया जाता था.

मैंने गुलज़ार साहब को ज़िन्दगी में पहली बार देखा था लेकिन उनकी वो भारी और संजीदगी से भीगी, पुरसुकूं आवाज़ मेरे कानों में बैठ चुकी थी. मैंने सोचा अगर आज गुलज़ार साहब के पास जाकर एक बार उनका आशीर्वाद नहीं लिया तो इस फिल्मइंडस्ट्री में काम करना ही बेकार हैं.

यही बात सोच-सोच कर मैं अपनी हिम्मत बढ़ा रहा था कि जैसे ही कोई ब्रेक होगा, मैं जाकर गुलज़ार साहब से ज़रूर बात करूँगा. अब मेरा पूरा ध्यान अपने इस शो से हटकर गुलज़ार साहब और घड़ी पर जम गया था. जैसे ही ब्रेक हुआ मैं तेज़ी से स्टेज पर पंहुचा और गुलज़ार साहब से कहाँ कि मैं आप को एक दफे गले लगाना चाहता हूँ. मेरी यह बात सुन कर गुलज़ार साहब मुस्कुराये और कुछ बोलने ही वाले थे कि प्रोडक्शन रूम से एक अनाउंसमेंट हुआ ‘प्लीज क्लियर डी फिल्ड’ और मुझे बेमन स्टेज  से नीचे उतरना पड़ा.

अब मैं हर ब्रेक का इंतज़ार करने लगा ताकि गुलज़ार साहब से जाकर मिल सकू. टाइम कम होने की वजह से ब्रेक काफी छोटे हो रहे थे, जिसके कारण मुझे स्टेज पर जाने का मौका नहीं मिल पा रहा था. देखते ही देखते शूट पूरा हो गया और मेरे स्टेज पर पहुचने के पहले ही वहां काफी लोग इकट्ठे हो चुके थे. इतनी भीड़ देख कर अब बाउंसर भी स्टेज पर आ गए थे और लोगो को हटा रहे थे लेकिन तभी स्टेज से गुलज़ार साहब ने मुझे देख कर हाथ हिलाया और ऊपर आने का इशारा किया. मैंने जैसे ही गुलज़ार साहब का हाथ देखा, भीड़ के बीच से होता हुआ गुलज़ार साहब की ओर भागा और जाकर उनके पैर छू लिए, तभी गुलज़ार साहब ने एक बात कहीं –

“तुम मुझे गले लगाना चाहते थे, फिर पैर क्यों छू रहे हो? गले लगो यार अभी से बूढा मत बनाओं”.

इसके बाद मैं गुलज़ार साहब को बस देखता ही रहा और गुलज़ार साहब मुस्कुरा रहे थे.

सचमुच कभी कभी कोई इंसान अपने इंसान होने के रुतबे से भी ऊपर हो जाता हैं. उसके आगे ये नाम, सारे अवार्ड्स भी  बौने लगने लगते हैं.

इस किस्से की बतौर निशानी तो मेरे पास कोई तस्वीर नहीं हैं, लेकिन उस रोज़ ऐसा लगा था कि मैं गुलज़ार साहब की रूह को छू पाया हूँ, उन्हें महसूस कर पाया हूँ. उस रोज़ पहली बार लगा कि कोई इंसान रूहानी तौर पर भी इतना  खुबसूरत  हो सकता हैं.

उस दिन के इस किस्से ने मुझे यह कहने पर मजबूर कर दिया कि “ख़ुदा भी गुलज़ार साहब जैसी रूहें कम ही बनाता हैं.”

उस दिन को याद करके आज मैं बड़े फक्र से कहता हूं: – “आने वाली नस्लें मुझ पर रक्श करेंगी, मैंने गुलज़ार को देखा हैं.”

सालगिरह की बहुत मुबारकबाद गुलज़ार साहब.

Sagar Shri Gupta

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Sagar Shri Gupta

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