हाजी अली – जब बात अपने रहनुमा की होती हैं, अपने ख़ुदा, अपने ईश्वर की होती हैं, तो किसी धर्म किसी मज़हब की लकीरे आड़े नहीं आती हैं.
इबादत की कुछ जगहें इतनी पाक़ हो जाती हैं कि ऊपर वाले के वजूद पर यकीन रखने वाला हर बंदा सभी दीवारे तोड़कर अपने ख़ुदा के पास पहुच ही जाता हैं. अरब सागर की खाड़ी में भी एक ऐसी ही दरगाह हैं जहाँ क्या मुसलमान, क्या हिन्दू सभी धर्म के लोग जाकर इबादत करते हैं.
हम सब उस जगह को “ हाजी अली दरगाह ” के नाम से जानते हैं.
हाजी अली के नाम से मशहूर यह दरगाह “हाजी अली शाह बुख़ारी” की हैं.
यहाँ हर धर्म के लोग आकर अपनी मन्नत का धागा बांधतें हैं और ऐसी मान्यता हैं कि यहाँ साफ़ दिल से मांगी गयी हर मुराद कभी भी खाली नहीं जाती हैं, यहाँ आये हर बन्दे की ख्वाहिश पूरी होती हैं.
हाजी अली की इस दरगाह को 15वी शताब्दी में मुंबई के वरली इलाके में स्थित समुद्र के किनारे पर एक टापू पर बनाना शुरू किया गया था. इस दरगाह की एक खास बात यह हैं कि यह जगह ज़मीन से करीब 500गज दूर समुद्र के किनारे से अंदर की ओर बनी हैं. इस दरगाह में जाने के लिए काफ़ी लम्बा रास्ता तय करना होता हैं. दरगाह तक पहुचने के लिए सीमेंट से बने एक पूल का सहारा लेना होता हैं, जिसके दोनों ओर समुद्र हैं. समुद्र ज्यादातर ज्वार के कारण चढ़ा ही होता हैं. समुद्र का पानी जब नीचे होता हैं तब तो यह पूल लोगों के आने-जाने के लिए खुला रहता हैं लेकिन जब पानी चढ़ा होता हैं तब यह रास्ता बंद हो जाता हैं. पानी के कारण न तो कोई दरगाह में जा सकता हैं न ही कोई दरगाह से बाहर आ सकता हैं.
लेकिन इसे चमत्कार ही कहेंगे कि ज्वार के वक़्त चढ़े हुए समुद्र के पानी की एक बूंद भी इस दरगाह के भीतर नहीं जाती हैं. ऐसे समय में दरगाह का यह नज़ारा बहुत ही ख़ूबसूरत नज़र आता हैं.
कहते हैं कि हाजी अली शाह बुख़ारी जब अपनी माँ की अनुमति लेकर व्यापार करने पहली बार अपने घर से निकले थे तब मुंबई वरली के इसी इलाक़े में रहने लगे थे. यहाँ रहते हुए उन्हें यह महसूस हुआ कि वह अपने आगे का जीवन भारत में ही रह कर अपने धर्म का प्रचार करते हुए बितायेंगे. शाह बुख़ारी ने अपनी माँ को एक चिट्ठी लिख कर अपने इस निर्णय की जानकारी दी और अपनी सभी धन-सम्पति ज़रूरतमंदों को दान देकर धर्म के प्रचार में निकल गए.
भौतिक जीवन से जुड़ी अपनी हर चीज़ लोगों को दे देने के बाद, हाजी अली सबसे पहले हज की यात्रा पर गए लेकिन इस यात्रा के दौरान उनकी मौत हो गयी. ऐसी मान्यता हैं कि हाजी अली का अंतिम संस्कार अरब में ही होना था लेकिन उनका ताबूत अरब सागर में होता हुआ मुंबई की इसी जगह पर आ रुका और आश्चर्य की बात ये रही कि बीच में कहीं भी हाजी अली का ताबूत न डूबा न उसके अंदर पानी गया. वह ताबूत इस इलाक़े में आकर मुंबई के समुन्दर समाया.
इसी के बाद हाजी अली शाह बुख़ारी को मानने वाले लोगों ने इस चमत्कार को देखकर उनकी दरगाह इसी टापू पर बनाने का निर्णय लिया. मान्यता हैं कि आज भी समुद्र तेज़ ज्वार के समय भी हाजी अली शाह बुख़ारी के अदब के चलते कभी अपने दायरें नहीं तोड़ता हैं.
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