838 ई. में ‘डब्ल्यू.एफ़. ऑसबर्न’ ने लिखा था कि, “हमें रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात् पंजाब को तुरन्त ही जीत लेना चाहिए और सिन्ध को अपनी सीमा बना लेना चाहिए.कम्पनी तो बड़े-बड़े ऊँटों को खा चुकी है, इस मच्छर की तो बात ही क्या है”.
1844 ई. में लॉर्ड एलनबरो की जगह लॉर्ड हार्डिंग गवर्नर-जनरल बनकर भारत आया.
हार्डिंग ने मेजर ‘ब्राडफ़ुट’ को पेशावर से पंजाब तक नियंत्रण का स्पष्ट निर्देश दिया.
1845-1846 ई. में हुए सिक्ख युद्ध का परिणाम अंग्रेज़ों के पक्ष में रहा. इस युद्ध के अंतर्गत मुदकी, फ़िरोजशाह, बद्धोवाल तथा आलीवाल की लड़ाइयाँ लड़ी गईं. ये चारों लड़ाइयाँ निर्णायंक नहीं थी. किन्तु पाँचवीं लड़ाई जो की ‘सबराओ’ की लड़ाई थी वह निर्णायक सिद्ध हुई.
लालसिंह और तेज़ सिंह के विश्वासघात के कारण ही सिक्खों की पूर्णतया हार हुई, जिन्होंने सिक्खों की कमज़ोरियों का भेद अंग्रेज़ों को दे दिया था.
‘साभार- पुस्तक भारतीय इतिहास के पन्नों से’
इंग्लैंड और भारत का पहला युद्ध
कहते हैं कि इंग्लैंड की ओर से यह पहली बार भारत पर आक्रमण किया गया था. लेखक अरुण कुमार लिखते हैं कि ‘भारत और अंग्रेजों के बीच पहला युद्ध सिख राजाओं और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच 1845 से 1846 ई के बीच लड़ा गया. परिणाम यह हुआ कि लार्ड डलहौजी की 29 मार्च 1849 ई की घोषणा द्वारा पंजाब का विलय अंग्रेजी राज्य में कर लिया.’
वैसे यह युद्ध कश्मीर पर किया हुआ हमला भी बोला जाता है.
इससे पहले कश्मीर पूरी तरह से ही सिखों के कब्जे में था. किन्तु कुछ साथी लोगों की गद्दारी के कारण सिख लोगों की यहाँ हार हो गयी थी और सिंध का क्षेत्र अंग्रेजों के कब्जे में आना शुरू हो चुका था.
इस युद्ध के बाद जो संधि बनाई गयी थी वह इतनी खराब बताई जाती है कि उसने पंजाब को तो पूरी तरह से बर्बाद कर ही दिया साथ ही साथ इसने पुरे सिंध क्षेत्र को बुरी तरह से प्रभावित किया था.
युद्ध के बाद हुई संधि में बहुत बड़ा जुर्माना राजा को देना पड़ा था और साथ ही साथ कश्मीर भी अंग्रेजों के कब्जे में चला गया था. कहते हैं कि इस अंग्रेज-सिख युद्ध के बाद पंजाब इस दर्द से कभी उठ नहीं पाया था.
तब अगर दूसरे राजाओं ने सिखों का साथ दिया होता तो निश्चित रूप से देश गुलाम बनने से बचाया जा सकता था.
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