देश में बड़े-बड़े मुद्दों पर बहस होती है.
लोकतंत्र और तानाशाही पर जमकर बवाल किया जाता हाई.
कोई कहता है अफजल जिंदाबाद तो कोई भारत के टुकड़े करने पर उतारू रहता है लेकिन समझ नहीं आता है कि जब कश्मीरी पंडितों का मुद्दा आता है तो वही हंगामा करने वाले लोग क्यों अचानक शांत हो जाते हैं.
आज असहिष्णुता के सबसे बड़े शिकार कश्मीरी पंडित हैं, क्योंकि उन्हें अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा है. बाकी लोग जो सोचते हैं कि उनको देश छोड़ देना चाहिए वह तो मात्र सोचते ही हैं जबकि कश्मीरी पंडित तो मार कर निकाल दिए गये हैं.
लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि जब यह लगभग 3 लाख पंडित कश्मीर से पलायन कर रहे थे तो वहां पुलिस और सेना क्या कर रही थी? अब अभी ऐसा एक खास धर्म के साथ हो जाये तो देश की संसद नींद से जाग उठेगी लेकिन तब देश की राजनीति और राजनेताओं को क्या हो गया था?
बात 90 के दशक की है…
कश्मीरी पंडितों को 1990 में आतंकवाद की वजह से घाटी छोड़नी पड़ी या उन्हें जबरन निकाल दिया गया है. यह सवाल आज भी सुलझा नहीं है. कश्मीरी पंडितों को कश्मीर में बेरहमी से सताया गया. उनकी बेरहमी से हत्याएं की गई। उनकी स्त्रियों, बहनों और बेटियों के साथ दुष्कर्म किया गया. उनकी लड़कियों का जबरन निकाह मुस्लिम युवकों से कराया गया.
आपको यहाँ बताते चलें कि जब कश्मीर में 1947 में पाकिस्तान घुसा था तभी सरदार पटेल ने नेहरु को कहा था कि अगर यह समस्या अब खत्म नहीं हुई तो आने वाला समय इसके बड़े परिणाम देखेगा. और जब कश्मीरी पंडित गुलाम कश्मीर से भारतीय कश्मीर में आये तो यहाँ इनके साथ जानवरों जैसा व्यवहार किया गया था.
तब सेना कहाँ थी?
4 जनवरी 1990 को कश्मीर के प्रत्येक हिंदू घर पर एक नोट चिपकाया गया, जिस पर लिखा था कि कश्मीर छोड़ के नहीं गए तो मारे जाओगे. सबसे पहले हिंदू नेता एवं उच्च अधिकारी मारे गए. फिर हिंदुओं की स्त्रियों को उनके परिवार के सामने सामूहिक दुष्कर्म कर जिंदा जला दिया गया या निर्वस्त्र अवस्था में पेड़ से टांग दिया गया. बालकों को पीट-पीट कर मार डाला. यह मंजर देखकर कश्मीर से 3.5 लाख हिंदू पलायन कर गए.
पिछले दिनों एक रेल यात्रा में बुजुर्ग सेना के पूर्व अधिकारी मिले तो वह बताते हैं कि उस वक़्त मेरी पोस्टिंग वहीँ थी. दिल्ली से कुछ भी ना करने के आदेश आ रहे थे. अधिकारी इस पलायन को रोकना चाहते थे लेकिन दिल्ली से किसी भी तरह का आर्डर नहीं हुआ. ऐसा लग रहा था कि जैसे इनका पलायन एक सरकारी साजिश है. आगे वह बताते हैं कि कश्मीर में पुलिस और सेना दोनों लोकतांत्रिक तरह से काम नहीं कर पा रही हैं.
तो अब इस सवाल का जवाब हमें आज ही खोजना चाहिए कि जब यह अत्याचार हो रहा था तो उसी तरह से सेना-पुलिस क्यों नहीं थी जैसे गुजरात और बाबरी के समय उत्तर प्रदेश में थी.
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