भारत

आतंकवादियों के गुमराह होने का बहाना

आतंकी संघठन ‘आई एस’ का प्रवक्ता बनने की ख्वाइश रखने वाले मुंबई के ‘जर्नलिस्ट फॉर इंटरनेशनल पीस’ के सम्पादक जुबैर अहमद खान ने कुछ समय पहले कहा था,’मैं समाज के सामने मुस्लिमों की सच्ची तस्वीर पेश करना चाहता हूँ.

आई एस उनको धोका नहीं देता जो मज़हब के नाम पर उसकी मदद करता है.’ याकूब मेमन को ‘शहीद’ बताने वाले इस पत्रकार ने तो फेसबुक पर आई एस के प्रमुख बगदादी से उसके प्रवक्ता बनने की इच्छा जताई थी. इसके लिए वो दिल्ली स्थित इराकी दूतावास भी पहुंचा था पर वहीं से उसे गिरफ्तार कर लिया गया. जुबैर पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन विषय में स्नातकोत्तर है व उसके पास पत्रकारिता व जंसचार की भी डिग्री है. उसकी पत्नी भी सरकारी स्कूल में शिक्षिका है.

वहीं, केरल के एक दैनिक अखबार में कार्य करने वाले पत्रकार की आई एस में शामिल होने की पुष्टि हुई है जो सामाजिक विज्ञान में स्नातक था. गौरतलब है कि मिली सूचना के अनुसार, अभीतक केरल में कम-से-कम 15 शिक्षित व्यक्तियों के आई एस से जुड़ने की खबर मिली है. अब अगर इन सब बातों को अंतर्राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में देखें तो पता चलेगा कि इराक-सीरिया में आई एस का झंडा बुलंद करने वालों में से करीब 4,000 से ज़्यादा विदेशी हैं. जिनमें से हर चार में एक ब्रिटिश नागरिक है. यूरोपीय संघ के आतंक प्रतिरोधी दस्ते के समन्वयक गिल्स डी केरचोव के अनुसार, यूरोप के युवा मुसलामानों का अन्यत्र जाकर मज़हब के नाम पर लड़ाई लड़ना दशकों पुरानी परंपरा है.

वर्तमान में इसमें तेज़ी आई है. आंकड़ों पर गौर करें तो सीरियाई विद्रोहियों के साथ मिलकर जिहाद कर रहे विदेशियों की संख्या तकरीबन 12000 है, जिनमें 2000 से ज़्यादा जर्मन नागरिक हैं. ब्रिटिश सेना में जितनी मुस्लिम महिलाएं हैं उससे कहीं ज़्यादा आज औरतें आई एस के लिए बंदूकें थामें हैं. फिर सीधा सा सवाल यही है कि यूरोप या अमेरिका आदि के आधुनिक माहौल व बहतरीन शिक्षा अर्जित करने वाले इन युवाओं को क्या हो गया है कि वे आई एस जैसे बर्बर आतंकी संगठन के साथ मिलकर मज़हब के नाम पर मरने-मारने के लिए तैयार हो गए हैं?

अपने कई अनगिनत ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स और करीब 46,000 से अधिक ट्विटर खातों से आई एस मुस्लिम युवाओं से ‘हिजरा’ करने की अपील करता है. इसीलिए आज डॉक्टर, नर्स, इंजीनियर, पत्रकार आदि की सेवाएं देने के लिए करीब 90 देशों के मुस्लिम युवा इराक-सीरिया में हिजरा कर रहे हैं.

किंग्स कॉलेज, लंदन के रिसर्च सेंटर के अनुसार प्रति माह तकरीबन 1000 विदेशी नागरिक आई एस से जुड़ रहें हैं. हिजरा का मतलब अलकायदा के सह-संस्थापक और आधुनिक जिहादी आंदोलन के पितामह कहे जाने वाले अब्दुल्ला आजम बताता है,’भय की भूमि से सुरक्षा की भूमि की ओर उत्प्रवासन हिजरा है.’ अब सोचने वाली बात ये है कि दुनिया के विकसित देशों के आधुनिक एवं उदार माहौल में शिक्षित-दीक्षित इन मुस्लिम युवाओं को अपने देशों में किस बात का और किससे भय है? वे क्यों इराक-सीरिया में अल्पसंख्यकों और बंधकों की बर्बरतापूर्वक हत्या कर वे उसे हिजरा का नाम दे रहें हैं. किसी का मज़हबी दायित्व वहां रह रहीं यजीदी महिलाओं और छोटी बच्चियों से बर्बर सामूहिक दुष्कर्म करके कैसे पूरा हो सकता है? उन्हें ऐसा कुर्र व्यवहार करने की प्रेरणा आखिर मिल कहाँ से रही है?

दूसरी ओर सेक्युलरिस्ट मज़हबी कट्टरवाद और जिहादी आतंक को मुट्ठी भर भटके युवाओं की हरकत बताते हैं. वे जिहाद के नंगे सच को ढकने के लिए गरीबी, अशिक्षा, ऐतिहासिक अन्याय आदि का सहारा लिया करते हैं पर हकीकत इससे कोसों दूर है. अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हवाई हमला करने वाले सभी दोषी उच्च शिक्षा प्राप्त व संभ्रांत घरों से थे. जिहादियों के आदर्श माने जाने वाला ओसामा सऊदी अरब के सबसे अमीर घरानों में से एक का वारिस था. वहीं, आई एस प्रमुख बगदादी भी इस्लामी शिक्षा में डॉक्टरेट की उपाधि लिए है. आज दुनियाभर में जहाँ कहीं बड़ी आतंकी घटनाएं सामने आईं हैं उन्हें अंजाम देने वालों में ज्यादातार डॉक्टर्स, इंजीनियर्स आदि शामिल होते हैं. फिर कैसे कोई कह सकता है कि शिक्षा का अभाव व गरीब ही जिहादी को पैदा करता है?

आतंक आज सभ्य समाज के लिए अभिशाप बन चुका है. इन हालातों में इसकी पड़ताल करने की ज़रूरत है कि आखिर वो कौन सी प्रेरणा है जो ऐसे मुस्लिम युवाओं को जिहादी बनने की ओर आकर्षित कर रही है?

Devansh Tripathi

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