बिहार में दलितों की बस्ती के अन्दर, बाबू रहता है. वह अभी 14 साल का है. इस बच्चे की आँखों में आज भी एक दर्द आसूओं के जरिये सामने आ ही जाता है. कहते हैं कि दिन में कई बार बाबू पापा-पापा बोल कर रो देता है. गाँव वालों के लिए ये बिना बाप का बच्चा है. इसके पिता की मौत 2008 में, कालाजार बुखार से हुई. बाबू जब भी अपनी माँ से पिता के बारे में पूछता है, माँ सीधे बोलती है कि मर गया है तेरा बाप.
गाँव में ऐसी एक दो नहीं बल्कि लगभग 50 दर्द भरी कहानियां, जो पिछले 13 सालों में जन्म ले चुकी हैं. वैसे मौत तो हर गाँव में होती हैं, इसमें कोई नई बात तो है नहीं. लेकिन यहाँ जानने लायक बात यह है कि ये मौतें एक ही बीमारी से हुई हैं. कालाजार ने यहाँ अपना तांडव 2004 के अन्दर शुरू किया था. 2004 से लेकर 2015 तक यहाँ 48 लोगों की जान, यह खतरनाक बीमारी ले चुकी है. इसके कारण, गाँव के घरों से या तो किसी का बाप मरा है, या किसी की माँ और या फिर किसी की पत्नी या बेटा-बेटी. लेकिन दर्द सबका एक ही है, आज के स्वतंत्र भारत में भी ऐसा हो गया, जैसा हमारे साथ गुलामी में होता था. आज भी बिहार के सीतामढ़ी जिले में स्थित ‘तेमहुआ’ गाँव में ऐसा हो गया, यह बात हमें खुद पर शर्म करने के लिए शायद काफी है.
इस कहानी की शुरुआत होती है साल 2004 से. बिहार के सीतामढ़ी में अचानक से लोग बुखार के कारण बीमार होने लगते हैं. गाँव छोटी जाति के लोगों का था, तो इस ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया. फिर एक ही साथ लोग मरने लगते हैं. आपको ये भी बताते चलें कि ये वही जगह है, जहाँ माँ सीता का जन्म माना जाता है. गाँव वाले मर रहे थे, राज्य की सरकार और प्रशासन एक दूसरे की ओर बस देख रहे थे, जैसे बोल रहें हों कि ‘देखो, राज्य की गरीबी अब कम हो रही है. गरीब ख़त्म हो रहा है’. साल 2013 तक आते-आते यहाँ लगभग 46 लोग मर चुके थे, ये संख्या अब बढ़ कर 48 तक जा चुकी है. बिहार राज्य का प्रशासन ये बोलता है कि इनकी जान कालाजार के बुखार ने नहीं ली है. तो सवाल यह है कि जब इसने इनकी जान नहीं ली है तो किसने इनकी जान ली है और जब ये लोग अस्पताल में होते हैं, तो आपके डाक्टर, क्यों इन्हें कालाजार की दवा दे रहे होते हैं जहाँ ईलाज के दौरान ही इनकी मौत हो जाती है.
दिलीप और अरूप दोनों भाई यहीं रहते हैं. ये दोनों ये होता देख नहीं रहे थे बल्कि खुद की मौत के लिए भगवान से दुआ मांग रहे थे. दोनों भाई, इस समय में लोगों की सेवा में लगे थे. जो लोग मरे, उन लोगों ने दोनों भाइयों को अपनी गोद में खिलाया था, मजबूर दोनों भाई राज्य की सरकार से मदद मांग रहे थे, जिंदगी के लिए जगह-जगह हाथ फैला रहे थे. पर कहीं से कुछ भी हासिल नहीं हुआ. राज्य के मुख्यमंत्री तब भी नीतिश कुमार ही थे और जनता दरबार में दोनों भाइयों को कोई न्याय नहीं मिला.
जब इनकी सीएम ने नहीं सुनी और इनको पीएम मनमोहन सिंह से कोई आस जगी नहीं थी तो इन्होनें राष्ट्रपति के नाम पत्र लिखने की सोची. बीते दस सालों में देश के अन्दर दो राष्ट्पति बदल गये हैं लेकिन कभी किसी ने इन दोनों को मिलने के लिए नहीं बुलाया है. दोनों भाइयों ने अपने गाँव की खातिर शादी तक नहीं की है. अपना जीवन दोनों ने समाज सेवा में निकाल दिया, पर इन दोनों का बलिदान किसी को भी नज़र नहीं आया है.
दिलीप कहते हैं, “पहली बार मई 2004 में, मैं राष्ट्रपति से मिलने दिल्ली गया था. लेकिन मिल नहीं पाया. मुझसे वक्त लेने को कहा गया. मैंने मिलने का वक्त मांगा, लेकिन मुलाकात फिर भी न हो सकी. इसके बाद मैंने 6 दिसबंर 2004 से पत्र सत्याग्रह शुरू किया. हर दिन राष्ट्रपति के नाम पत्र लिखकर गुहार लगाता हूं कि कालाजार से मरते अपने गांव को हर क्षण हर कोई देख रहा है, लेकिन कोई कुछ करता क्यों नहीं है. अभी तक राष्ट्रपति को 3715 से ज्यादा पत्र लिख चुका हूं. हर पत्र की रसीद मेरे पास है. लेकिन कभी कोई पत्र नहीं आया और 31 अक्टूबर 2014 को जो पहला पत्र आया, उसमें राष्ट्रपति ने वक्त ना होने का ज़िक्र किया. इसमें लिखा गया है कि , “आपका पत्र मिला . लेकिन राष्ट्रपति बहुत व्यस्त है और उनके पास आपसे मिलने के लिये कोई वक्त नहीं है और ना ही वह आपकी समस्या सुन सकते हैं.” अब सोचता हू कि जब राष्ट्रपति के पास वक्त नहीं. मुख्यमंत्री के पास वक्त नहीं, तो फिर संविधान ने जीने का जो हक हमको दिया है वो गलत है. अब गुहार कहां लगाऊं?
जब बीजेपी की ओर से नरेन्द्र मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बने तो उम्मीद लगी कि अब हमारी कोई सुनेगा. इस क्रम में पहली बार नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखा. यह सोच कर लिखा कि कम से कम मेरा गाँव सीतामडी में है तो सीता की जन्म भूमि को याद कर ही प्रधानमंत्री मेरे गाँव की तरफ देख लें. पर दो पत्र उनको लिखने के बाद भी मुझे आज तक कोई जवाब नहीं मिला है.”
दिलीप इतना कहने के बाद रोने लगते है. “हम गरीबो का कोई नहीं है. क्या देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति हमसे मिल नहीं सकते क्या? मैं उनके बड़े-बड़े भवनों में घुमने नहीं जाना चाहता. मैं वहां पानी तक नहीं पीना चाहता, बस अपना दर्द उनको सुनाना चाहता हूँ. मेरे 10 सवालों का जवाब वो दे दें या ना मुझे वक़्त दें, मेरे इस जिले में एक दौरा कर लें. खुद आयें, यहाँ के लोग आसुओं से उनका स्वागत ना करे तब बताये. घर के घर तबाह हो चुके हैं.”
दिलीप ने 3740वां पत्र मार्च 2015 को लिखा है, जिसका कोई भी जवाब अब तक नहीं मिला है. ये गाँव हर पल हर क्षण हर घड़ी, भारत के राष्ट्रपति से यह सवाल पूछ रहा है कि हमें बताएं कि हमारे अपने लोग कालाजार बीमारी से क्यूँ मर गए? किसी ने भी इन ग़रीबों का दर्द क्यों महसूस नहीं किया? और आज भी ये बीमारी रह-रह कर वापस आ जाती है, तो इन लोगों के दर्द को राष्ट्रपति जी क्यों नही महसूस कर रहे हैं? इन अभागे लोगों का गॉंव, तेमहुआ है, जो सीतामढ़ी जिले, बिहार में आता है, यहाँ पर आपकी नज़र कभी पड़ेगी क्या? और यही सवाल हमारे प्रधानमंत्री जी से भी है कि, क्या दिलीप से मिलने का 5 मिनट का भी वक़्त किसी के पास नही है? क्या किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति को हमारे प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति दिलीप से मिलने को नहीं बोल सकते हैं? जो लोग मरे हैं, उनको न्याय कब मिलेगा, इनको कोई सरकारी मदद नहीं दी जा सकती है क्या? और अगर ऐसा नहीं हो सकता है तो लोकतंत्र के नाम पर ये मजाक ही है.
मजाक नहीं है तो जल्द से जल्द दिलीप को मिलने के लिए दिल्ली बुलाया जाये.
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