किसी ने सच ही कहा है कि कड़ी मेहनत और सच्ची लगन से दुनिया में कुछ भी हासिल किया जा सकता है।
कुछ ऐसी ही कहानी है मसालों की दुनिया के बादशाह के रूप में पहचाने जाने वाले धर्मपाल जी की।
कुछ करने और कुछ बनने की चाह तो सभी रखते हैं। लेकिन उनसें थोड़ी सी भी नाकामयाबी देखी नहीं जाती। ज़रा सा संघर्ष आया नही कि टूट जाते है। लेकिन शायद आप नही जानते होंगे कि विभाजन का दर्द झेलने के बाद भी एक ऐसा व्यक्ति जो कभी दिल्ली की गलियों में तांगा चलाता था, आज कैसे मसाला उद्योग पे राज कर रहा है। हैरान कर देने वाली कामयाबी की ये कहानी देश के मशहूर उद्योपति महाशय धरमपाल गुलाटी की है जो एमडीएच मसाला ब्रांड के प्रमुख है ।
आप भी जानिये एक तांगे वाले से मसालों की दुनिया के बादशाह महाशय धरमपाल गुलाटी की कहानी-
महाशय धरमपाल गुलाटी –
शुरूआती जिंदगी-
अविभाजित भारत के सियालकोट (अब पाकिस्तान) में 1923 में धर्मपाल गुलाटी का जन्म हुआ था। सियालकोट में इनके पिता चुन्नीलाल मिर्च-मसालों की एक दुकान चलाते थे, जिसका नाम महाशियां दी हट्टी था। और यही महाशियां दी हट्टी आज मसालों की दुनिया में एमडीएच के नाम से एक बड़ा ब्रांड बन चुकी हैं।
जब हो गये पांचवी में फैल-
महाशय धरमपाल गुलाटी अपनी शिक्षा के बारे में बताते हैं कि वे सिर्फ “पौने पांचवी” तक ही पढ़े हैं और फ़ेल होने के बाद इनको अपने पिताजी के साथ मसालों की दुकान में काम करना पड़ा। पिता चुन्नी लाल ने उन्हें मसालों के अपने पुश्तैनी कारोबार में लगा दिया।
बंटबारे के बाद का संघर्ष –
सियालकोट का ये संपन्न परिवार 20 अगस्त 1947 के दिन शरणार्थी बन चुका था। महाशय धरमपाल गुलाटी बताते हैं कि सियालकोट के रिफ्यूजी कैंप में कुछ दिन गुजराने के बाद गुलाटी परिवार ने पाकिस्तान से पलायन किया। ये 1947 का वो दौर था, जब हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बंटवारे की आग ने सब कुछ तहस-नहस कर दिया था। अमृतसर आने के बाद इस परिवार को काफी संघर्षों से गुजरना पड़ा था। अब धर्मपाल के पास सबसे बड़ी चुनौती रोज़ी-रोटी थी। ना पुराना कारोबार था और ना ही कोई पूँजी थी। लेकिन इन सब परिस्थितियों के बाद उन्होंने हार नहीं मानी।
कुछ करने की चाह में दिल्ली का रूख किया –
महाशय धरमपाल गुलाटी कुछ करने की चाह लिए दिल्ली के करोल बाग आ गये और यहां कुछ पैसे जुटाकर एक तांगा और घोड़ा खरीद लिया। और इस तरह से तांगा चलाकर परिवार का भरन-पोषण करने लगे। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था, इसलिए कुछ दिनों के बाद उन्होंने ये धंधा भी छोड़ दिया। अब वो बाजार से मसाला खरीदकर लाते और घर में कूटते-पीसते और बेचते। धीरे धीरे इनकी मेहनत और ईमानदारी रंग लाई। इनके मसाले की शुध्दता और क्वॉलिटी लोगों के बीच प्रसिद्ध होने लगी और इनका कारोबार चल निकला।
फिर किसी तरह एक छोटी सी दुकान शुरू की –
किसी तरह एक 14 फुट के लकड़ी से बने खोखे में दुकान शुरू की और अपने हाथ से घर में मसाला पिसकर इस दुकान से बेचने लगे। लेकिन किसको पता था कि आगे चल कर मसालों का जो साम्राज्य स्थापित किया जायेगा, उसकी नींव इसी छोटे से खोखे पर रखी जायेगी। अखबारों में विज्ञापन के जरिए जैसे-जैसे लोगों को पता चला कि सियालकोट की देगी मिर्च वाले अब दिल्ली में है धर्मपाल का कारोबार तेजी से फैलता चला गया। 60 का दशक आते-आते महाशियां दी हट्टी करोलबाग में मसालों की एक मशहूर दुकान बन चुकी थी।
धीरे-धीरे कारोबार बड़ता गया-
महाशय धरमपाल गुलाटी के परिवार ने छोटी सी पूंजी से कारोबार शुरु किया था लेकिन कारोबार में बरकत के चलते वो दिल्ली के अलग – अलग इलाकों में दुकान दर दुकान खरीदते चले गए। इस तरह गुलाटी परिवार ने पाई–पाई जोड़कर अपने धंधे को आगे बढ़ाया।
इस तरह बन गये मसालों की दुनिया के बादशाह-
92 साल के महाशय धरमपाल गुलाटी मसालों की दुनिया में आज बेमिसाल हैं। उनकी कंपनी सालाना करोडों रुपयों का कारोबार करती है लेकिन एक तांगे वाले से अरबपति बनने की उनकी ये अद्भूत कामयाबी 60 सालों की कड़ी मेहनत और लगन का नतीजा है। यही वजह है कि आज उनके मसालें दुनिया के सौ से ज्यादा देशों में इस्तेमाल किए जाते हैं। जिसके लिए उन्होंने देश और विदेश में मसाला फैक्ट्रियों का एक बड़ा साम्राज्य खड़ा कर दिया है।
वैसे जितनी आसानी से धर्मपाल जी की कहानी लिखी गई है और जितने कम समय में आपने इसे पढ़ा है, दरअसल महाशय धरमपाल गुलाटी के संघर्ष की कहानी इतनी आसान नही है। जिन हालातों से गुजरकर धर्मपाल जी ने मसालों का व्यापार शुरू किया और पूरी दुनिया में अपनी कामयाबी की गाथा लिखी।
उसे महसूस करने के बाद ही आप इनके असली संघर्ष को पहचान पाएंगे।
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