भारत में किसी गरीब को अगर बीमारी हो जाती है तो वह सोच-सोच कर ही आधा मर जाता है.
सरकारी अस्पतालों में लाइन ऐसे लगती है कि जैसे वहां दवा नहीं, किसी हाउसफुल फिल्म का शो चल रहा हो. कई किलोमीटर की लाइन और डाक्टर एक या दो ही.
याद है आपको 2 साल पहले तो भोपाल में डाक्टर अपने मरीजों पर ही दवाओं का ट्रायल करते वक़्त पकड़े गये थे, जिस पर अंतिम साल हमारे कोर्ट ने फैसला सुनाया था. भारत में गरीबों का ईलाज तो सच में ही भगवान भरोसे हो रहा है.
स्वास्थ्य पर भारत सरकार हर साल करोड़ों रुपये खर्च कर रही है, किंतु आज भी इस क्षेत्र में सुधार की स्थिति नजर नहीं आ रही है। मौजूदा समय में शहरी क्षेत्रों के 25 प्रतिशत डाक्टर ही अपने मानकों पर खरे उतरते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में यह आंकड़ा मात्र 3 प्रतिशत ही रह जाता है। इस कारण ग्रामीण क्षेत्र की 70 करोड़ आबादी विश्वसनीय स्वास्थ्य सेवाओं के लिए जूझ रही है। वर्तमान में एक अनुमान के मुताबिक भारत में करीब 86 बिस्तर ही प्रति लाख आबादी को प्राप्त हो पाए हैं। जबकि यह संख्या भारत की जनसंख्या के अनुसार 396 तक होनी चाहिए थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार स्थिति बहुत ही दयनीय बनी हुई है।
सालाना स्वास्थ्य बजट का 85 प्रतिशत राज्य सरकार की ओर से तथा 15 प्रतिशत केन्द्र सरकार की ओर से खर्च हो रहा है। लेकिन आज स्वास्थ्य क्षेत्र को जिस तरह निजी हाथों में सौंपा जा रहा है, उसके कारण यह क्षेत्र दलालों की एक मंडी बनता जा रहा है। मेडिकल माफिया चाहता है कि मेडिकल बाजार पर उनका पूरा आधिपत्य हो जाए। एक षडयंत्र के तहत सरकार को स्वास्थ्य क्षेत्र में अपना दखल कम करने के लिए दबाव बनाया जा रहा है।
इस समय दवा उद्योग में लगभग 80 प्रतिशत कम्पनियां विदेशी हैं। जो भारतीय कम्पनियां अब दवा उद्योग में आ रही हैं, वे वास्तव में विदेशी दवा कम्पनियों की छाया मात्र हैं। नकली दवाओं का भी बड़ा कारोबार फैल चुका है। चिंता की बात यह है कि दवाओं को लेकर न सरकार की ओर से सख्ती है और न ही आम आदमी में जागरूकता। अधिकतर डाक्टर तो पहले से ही दवा उद्योग की दलाली करने में लगे हैं। हमारे देश में लगभग एक दर्जन भर ऐसी दवाएं बिक रही हैं जो अपने दुष्परिणामों के कारण विश्व में कहीं नहीं बिक रही है, उन्हें प्रतिबंधित कर दिया गया है। इनमें से कुछ प्रमुख दवाएं हैं- एनालजिन फुरा जोलीडान, लेनोफेथेलीन, ड्रोप रौडांल आदि।
भारत में लगभग 16 से 17 हजार अस्पताल जनता की सेवाओं में लगे हैं, किन्तु एक कड़वा सच यह भी है कि इनमें से 2 तिहाई प्राइवेट हाथों में हैं। कई अस्पतालों पर बाहर की कम्पनियों का कब्जा है। सरकारी अस्पतालों के अधिकतर डाक्टर अपने प्राइवेट अस्पताल या अन्य किसी के प्राइवेट अस्पतालों में डयूटी देते हैं। अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए वे सरकारी अस्पतालों में गरीब लोगों का ईलाज सही से नहीं करते हैं। सरकारी अस्पतालों में दवाओं की कमी हमेशा बनी रहती है जिसके चलते मरीज बाजार से दवा खरीदने के लिए मजबूर होते हैं।
सन् 2004 में भारत सरकार ने कुछ पश्चिमी दवा कम्पनियों के दबाव के चलते ऐसे कई फैसले लिये, जिनके कारण उनके लिए यहां रिसर्च करना और अपनी दवाओं का परीक्षण करना आसान हो गया। इसके चलते भारत रिसर्च करने के लिए एक सस्ता बाजार बनता जा रहा है जिसका खामियाजा प्राय: हमारे लोगों को अपनी जान देकर चुकाना पड़ता है। विदेशी कंपनियां बड़ी चालाकी से भारत की जनता को गायना पिग की तरह इस्तेमाल कर रही हैं। किसी प्रकार की अनहोनी घटना होने पर भी इन कंपनियों पर कोई आंच नहीं आती है। उन्हें पूर्ण सुरक्षा प्राप्त है। अपना प्रभाव क्षेत्र फैलाने के लिए विदेशी दवा कंपनियों ने कई भारतीय कम्पनियों को खरीदना शुरू कर दिया है।
देश के प्रधानमंत्री मोदी जी से सभी को उम्मीदें हैं, लेकिन आज भी कुछ जरूरी दवाओं के दाम आसमान छू रहे हैं. हमारे अस्पतालों की हालात खराब है, लोगों को सही ईलाज नहीं मिल पा रहा है और दूसरी ओर भारत को हम विकसित देश बोलने की गलतियां रोज कर रहे हैं.