हमें मनुष्य योनि कर्म और भोग के लिए मिली है. अकर्म का अर्थ कर्म न करना अथवा आलस्य माना जाता है. इस संसार में अनेक ऐसे व्यक्ति हुए हैं जो कोई कर्म करना नहीं चाहते हैं और केवल भोगों का आनंद लेना चाहते हैं. ऐसे व्यक्ति प्रायः अकर्मा या कर्महीन होते हैं. श्रेष्ठ मनुष्यों में क्रियाशीलता, संकल्प, ब्रम्हाचर्य, मननशीलता और मानवता आदि गुण होते हैं. इन गुणों से विपरीत गुण वाले को अकर्मा कहा जाता है.

भगवद्गीता में कहा गया है- ‘नहि कश्चित् क्षममपि जातु तिष्ठ्त्य कर्मकृत’ अर्थात मनुष्य एक क्षण के लिए भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता है. जिस समय शरीर कर्म नहीं करता उस समय भी मन और वाणी क्रियाशील रहते हैं.

हमसे परमेश्वर और उसके द्वारा बनाई गई पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्थाएं पुरुषार्थ और कर्म करते हुए अन्न, वस्त्र आदि विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन करने और सेवाएं प्रदान करने की अपेक्षा रखती हैं. बिना कर्म किए वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग करने वाला परजीवी भोगी कहलाता है. ऐसी परिस्थितियों में उसके पालन का दायित्व उसके परिवार या समाज पर पड़ता है. हमारी संस्कृती में दान की अत्यंत महिमा बताई गई है. इसके होते हुए बहुत से लोग कोई अस्वस्थता न होते हुए और शारीरिक रूप से हष्ट-पुष्ट होते हुए भी भिक्षा मांगकर जीविका चलाते हैं. ऐसा करके वे स्वयं तो इसे एक तरह का कार्य ही मानते हैं, परंतु बिना उचित कर्म किए समाज पर भार बनना दासता ही कहलाता है फिर चाहे वो खुद को कुछ भी कहें या कुछ भी जानें.

कर्म न करने की अपेक्षा सदा कुछ न कुछ कर्म करना हितकर यानी सही ही है. ये एक तरह से स्वास्थ्य को उत्तम व्यवस्था में देखने के लिए भी आवश्यक है. पुरुषार्थी व्यक्ति अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखते हुए नियत कर्म करते रहते हैं. वहीं, सामान्य लोग इंद्रियों पर नियंत्रण का विशेष ध्यान नहीं रखते हैं. इसके साथ ही अधर्मी स्वभाव के लोग इंद्रियों को विषयों में फंसाते हुए अपने भोगों में उलझे रहते हैं. ऐसे लोग प्रायः आलसी रहते हुए दूसरों पर जीवन निर्वाह के लिए निर्भर रहते हैं और अपने आलस्य में डूबे हुए कोई कर्म करने का प्रयत्न नहीं करते हैं. ऋग्वेद में ऐसे लोगों के लिए ही कहा गया है- ‘अकर्मा दस्युरभि नो अमंतु’ अर्थात् अकर्मण्य और मूर्ख व्यक्ति दास माना जाता है.

देखा जाए तो मनुष्य के पास जीवन में करने को दो ही चीज़ें होती हैं या तो वो कर्म ही कर ले या अपनी ज़िंदगी भोग के सहारे ही आगे बढ़ाता जाए. इंसान के पास हमेशा से ही दो रास्ते रहे हैं, अब वो कौन से रास्ते पर चलता है और किसे जाने देता है इसका फैसला उसे खुद ही करना होता है. कर्म के रास्ते पर उसे कई दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है. वहीं, भोग के रास्ते पर चलते हुए उसे ज़्यादा कुछ नहीं करना पड़ता, वो बस हाथ उठाए दूसरों से मांगने की अपेक्षा रखता है.

सिर्फ भोग करते रहने की चाह से व्यक्ति को हमेशा हिकारत की नज़र से ही देखा जाता है व उसका कोई वजूद नहीं रह जाता. इसलिए हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम कर्म का हाथ पकड़ें और अपने सपनों को खुद पूरा करने का हौसला रखें. मन में जब विश्वास हो तो जीत पक्की मानी जाती है.

Devansh Tripathi

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