इस बार रियो द जेनेरियो में भारत की अगुवाई करने के लिए खिलाड़ियों की संख्या के लिहाज से सबसे बड़ा दल उतारा गया था.
सभी को बस यही पता था कि इस बार मेडलों की संख्या देश में अधिक आने वाली है. कई सारे गोल्ड आयेंगे तो कई सारे सिल्वर भारत को मिलेंगे, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था.
5 अगस्त से शुरू हुए इस महाकुंभ में पदक की जगह केवल निराशा ही हाथ लगी. एक के बाद एक धुंरधंर और महारथी खिलाड़ी का क्वालीफाइंग राउंड में ही बाहर निकल जाना, हर किसी को परेशान करने लगा. यहां तक कई लेखकों ने तो इन खिलाड़ियों के खिलाफ ही बोलना शुरू कर दिया.
लेकिन बेटियों ने देश की लाज रख ली –
वो कहते हैं ना कि जब-जब भारत पर कोई मुश्किल आई है तो स्त्री ने ही देवी का रूप धारण कर भारत की लाज बचाई है.
यह बात इस बार ओलंपिक में भी सही साबित हुई. भारतीय समाज शुरुआत से बेटों को पालता आ रहा है और बेटियों को काटता आ रहा है लेकिन जब-जब मौका बेटियों को मिला है तब-तब इन्होनें खुद को अव्वल साबित किया है.
जी हां ओलंपिक में भारत का सूखा समाप्त करने वाली ‘हिंदुस्तान की सुल्तान’ महिला पहलवान साक्षी मलिक को भारत सदियों तक याद रखेगा. इस खिलाड़ी ने कांस्य पदक जीता और देश की झोली में एक मेडल डाला.
वहीं दूसरी ओर बैडमिंटन में पी वी सिंधू ने चीन और जापान की दीवार को तोड़कर फाइनल में रजत पदक हांसिल किया. बेटियों ने देश की लाज रख ली हैं. भारत देश की बेटियां, जहां इन्हें जीने का अधिकार भी भीख में मिलता है, वहीं यह बेटियां भारत के लिए लड़ते हुए जी-जान लगा देती हैं.
‘जी हां वहीं देश जहां खाद-पानी तो बेटों को दिया जाता है, लेकिन लहलहाती बेटियां हैं.’
आज बेटियों ने देश की लाज रख ली है.
भगवान साक्षी है कि साक्षी ने जो कर दिखाया है, उसके बाद वो किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं. ओलंपिक में कांस्य पदक हासिल करने के साथ ही वह ओलंपिक इतिहास में मेडल हासिल करने वाली चौथी महिला एथलीट बन गई हैं.
पीवी सिन्धु ने बैडमिंटन में रजत पदक दिलाया.
इसके अलावा देश में खेलों के संपूर्ण साधन उपलब्ध ना होने के बावजूद देश की पहली जिम्नास्ट दीपा कर्माकर ने भले ही कोई पदक न जीता हो, लेकिन उन्होंने अपना बेहतर प्रदर्शन कर रियो में इतिहास रच दिया कि जिस देश में कभी भी इस खेल को नहीं खेला गया, उसमें वह चौथे दौर तक एक के बाद एक चुनौतियों को पार करती गई.
आखिर क्यों पुरुष रहे हैं फ्लॉप?
वहीँ बड़ा सवाल यह अब उठ रहा है कि आखिर ओलंपिक में इस बार पुरुष क्यों फ्लॉप रहे हैं?
तो इसका जवाब यही है कि शायद यह लोग अपना ध्यान खेल की जगह, ओलंपिक की चमक में लगा बैठते हैं. इस बार वैसे पुरुषों के खेल को देखकर तो ऐसा लगा है कि जैसे पुरुष तो इस बार पिकनिक मनाने, ओलंपिक में गये थे. यह बात सभी पुरुषों के लिए नहीं है किन्तु सत्य यह है कि पुरुषों की भर्ती ओलंपिक में पैरवी के दम पर भी हो रही हैं. वो उसका बेटा है, इसलिए ओलंपिक जायेगा. सवाल बड़ा है और कड़वा भी, लेकिन हमें फिर से सोचना होगा कि क्या इस बार के पुरुष ओलंपिक में जाने लायक थे क्या?
पुरुषों को लेकर सवाल वाकई गंभीर हैं. ओलंपिक में खिलाडियों का ध्यान खेल की तरफ ना रहकर यहाँ की चमक की तरफ ज्यादा होता है. यहाँ आ रही महिला खिलाड़ियों की तरफ पुरुषों का ध्यान यदि रहेगा तो गोल्ड कभी नहीं मिलेगा. अच्छी सुविधाओं के बाद भी अगर यह पुरुष गोल्ड नहीं दिला पा रहे हैं तो शायद अगली बार से पुरुषों की जगह सिर्फ और सिर्फ महिलाओं को ही भारत ओलंपिक भेजे.
लेकिन आप यकीन मानों या ना मानों लेकिन इस बार बेटियों ने देश की लाज रख ली है.
चीन की मीडिया भारत पर हँस रही थी और अगर एक भी मेडल देश को नहीं मिलता तो यह वाकई निराशाजनक बात होती.
वो तो धन्य हैं यह देवियाँ, जो भारत देश के लिए लड़ी और इन्होंनें अपने हिस्से के मेडल्स जीतकर देश की इज्ज़त बचा ली है.
(लेख में लिखे गये विचार लेखक के हैं और इस लेख का उद्देश्य किसी का अपमान करना नहीं है. अपितु देश वाकई पुरुषों के प्रदर्शन से खफा है. यहाँ लिखी गयी बातें सभी पुरुष खिलाड़ियों के लिए नहीं हैं. यदि इन बातों से किसी का दिल दुखता है तो उसके लिए लेखक क्षमा मांगता है.)
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