किस तरह से इस देश ने दी हमें जातिवाद और छुआछूत की बिमारी
ना सिर्फ हिंदू समाज, बल्कि हर वर्ग, हर तबके के लिए जातिवाद और छुआछूत नाम की बीमारी समाज के ऊपर लगा हुआ ग्रहण या एक ऐसा कलंक जो कभी मिटने का नाम हीं नहीं लेता.
अति प्राचीन समय से प्रचलित यह प्रथा आज भी बरकरार है.
हम बात कर रहे हैं भारत में फैले जातिवाद और छुआछूत के प्रथा की, सवाल ये है की क्या हमारे देश में छुआछूत शुरुआत से चला रहा है? या इसका जनक कोई और है? पूर्वाग्रहों पर ध्यान दें तो जाति प्रथा की बात शुरुआत से ही कही जा सकती है.
लेकिन जातिवाद और छुआछूत पहले नहीं थी.
अंग्रेजो के द्वारा किए गए सर्वे इस बात का प्रमाण है कि हमारा देश जातिवाद और छुआछूत के कलंक से कोसों दूर था.
भारत को तोड़ने और कमजोर बनाने की अनेक चालें अंग्रेजों ने चली. अंग्रेजो ने हम भारतवासियों की कमजोरी और खासियतों को जानने के लिए एक सर्वे कराये थे. उन सर्वे के तथ्यों और आज के इतिहास के कथनों में जमीन आसमान का फर्क है. सर्वे किए पन्नों पर गौर करें तो सन 1820 में एडम स्मिथ नामक अंग्रेज ने एक सर्वेक्षण किया था. और एक सर्वेक्षण टी.बी.मैकाले ने किया था. टी.बी. मेकाले ने 1835 में सर्वेक्षण करवाया था. इससे पता चलता है कि तब तक भारत में छुआछूत नाम की बीमारी नहीं थी.
उनके द्वारा किए सर्वे –
उस समय भारत के विद्यालयों में जहां 26% ऊंची जाति के लोग पढ़ते थे, तो वहीं 64% छोटी जाति के छात्र पढ़ते थे. 1000 शिक्षकों में 200 ब्राह्मण और बाकी के डोम जाति तक के शिक्षक थे. स्वर्ण जाति के छात्र भी बिना किसी भेदभाव के द्विज और ब्राह्मण शिक्षकों से शिक्षा ग्रहण करते थे.
वहीं मद्रास प्रेजिडेंसी में तब 1500 मेडिकल कॉलेज थे. जिनमें एम.एस. डिग्री के बराबर शिक्षा दी जाती थी. जबकि आज के भारत की बात करें तो पूरे भारत में इतने मेडिकल कॉलेज नहीं होंगे.
वहीं दक्षिण भारत की बात करें तो 2200 इंजीनियरिंग कॉलेज थे, जहां एम.ई. स्तर की शिक्षा दी जाती थी. उस वक्त मेडिकल कॉलेजों में ज्यादातर सर्जन नाई जाति के होते थे और इंजीनियरिंग कॉलेज के अधिकांश आचार्य पेरियार जाति के थे. ये वही पेरियार जाती है, जो आज के समय में छोटी जाति के समझे जाते हैं. इन्हीं पेरियार जाति के वास्तुकारों ने मदुरई आदि दक्षिण भारत के अद्भुत वास्तु वाले मंदिर बनाए हैं.
उस समय मद्रास के जिला कलेक्टर ए.ओ. ह्युम ने लिखित आदेश निकाल कर इन वास्तुकारों पर रोक लगा दी थी की वो मंदिर का निर्माण नहीं कर सकते और उनके इस आदेश को कानून बना दिया गया था.
आज के छोटी जाती के समझे जाने वाले नाई सर्जन कितने योग्य थे, इसका एक उदाहरण है हैदर अली और कर्नल कूट.
सन 1781 में कर्नल कूट नाम के एक अंग्रेज ने हैदर अली पर हमला कर दिया था. इस हमले में कर्नल कूट हैदर अली से परास्त हो गया. जिसके बाद हैदर अली ने कर्नल कूट की नाक काट दी. और उस कटे हुए नाक को कर्नल कूट के हाथ में दे कर घोड़े पर बिठा दिया. और उसे भागने को कहा. भागते-भागते कर्नल कूट बेलगांव पहुंच गया. जहां उसे एक सर्जन ने देखा, और उस सर्जन ने कर्नल कूट की नाक की सर्जरी की और कटे हुए नाक को पहले की तरह ही वापस जोड़ दिया. या यूं कहें कि कर्नल कूट के नाक की प्लास्टिक सर्जरी कर दी.
ज्ञात हो की वो सर्जन जाति से नाई था.
इसके बाद करनल कूट वापस इंग्लैंड चला गया. और 3 महीने बाद ब्रिटिश पार्लियामेंट में खड़ा होकर भाषण दे रहा था. सब से पूछ रहा था कि क्या मेरी नाक कटी हुई है? तो किसी ने विश्वास नहीं किया. तब कर्नल कूट ने सबसे अपनी नाक कटने की कहानी बताई और सर्जन के द्वारा किए गए सफल ऑपरेशन की बात बताई. उसके बाद ब्रिटिश पार्लियामेंट वैध की खोज खबर ली गई.
अंग्रेजों का एक दल बेलगांव आया.
जब उनसे प्लास्टिक सर्जरी के विषय में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि यह सिर्फ मैं नहीं करता, बल्कि पूरे भारत में इस तरह की सर्जरी सर्जनों के द्वारा की जाती है. इसके बाद कई अंग्रेजो ने यहां से इसकी शिक्षा ली. और इस तरह भारत से दूसरे देशों में प्लास्टिक सर्जरी की शिक्षा पहुंची.
सोचने वाली बात है कि आज से केवल 175 साल पहले हमारे देश में कोई छुआछूत नहीं था.
कार्य विभाजन, कला-कौशल की वृद्धि के लिए जातियां तो जरूरत थी, पर जातियों के नाम पर यह घृणा, द्वेष, लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार नहीं था.
फिर यह कलंक भारत को किसने दिया?
और यह प्रथा प्रचलित कैसे हुई?
क्या इसे खत्म नहीं हो जाना चाहिए?
आज के आधुनिक युग में जहां साइंस ने इतनी तरक्की कर ली है. हमने चांद को छू लिया, मंगल ग्रह तक पहुंच गए. और ना जाने कितनी सारी तरक्की हमने कर ली. लेकिन फिर भी जातिवाद और छुआछूत की बीमारी का कोई इलाज क्यों नहीं मिल पाता है? क्या ये हमारे समाज के विकास में रुकावट नहीं? क्या इस रुकावट को तोड़ना हमारा कर्तव्य नहीं?
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