राजनीति में जाति का मुद्दा भारत में कोई नया नहीं है।
अलग-अलग जातियों के आधार पर राजनैतिक पार्टियां अपना एजेंडा तैयार करती हैं। राजनैतिक दल वोट बैंक के लिए किसी भी क्षेत्र से उम्मीदवार को सिर्फ जाति विशेष की आबादी के आधार पर ही टिकट देते हैं।
2014 के लोकसभा चुनावों में जाति का मुद्दा कमजोर पड़ गया था और विकास की राजनीति को तवज्जो मिलना शुरू हुई । लेकिन अफसोस इस बात का है कि विकास का यह मुद्दा चुनावों में ज्यादा अपनी जगह नहीं बना सका और एक बार फिर जाति का मुद्दा राजनीति का मुद्दा हावी हो गया है।
यहां तक की सिर्फ जाति ही नहीं बल्कि धर्म के आधार पर भी ओछी राजनीति शुरू हो गई है। रही सही कसर सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने पूरी कर दी, जिसमें अनुसूचित जाति और जनजाति एक्ट के दुरुपयोग पर रोक लगा दी गई। जिसके बाद हर राजनैतिक पार्टी ने अपने आपको दलितों का हितैषी बताकर उन्हें अपनी ओर खींचने के लिए पूरी ताकत झोंक दी।
आजादी के समय से ही दलितों पर राजनीति होती आई है।
दलितों को भारत का हिस्सा बनाए रखने और उन्हें सामाजिक समानता देने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई। लेकिन यहां पर भी राजनैतिक पार्टियों ने अपने फायदे के लिए आरक्षण को एक लालच की तरह इस्तेमाल किया।
भारत में लगभग 3000 जातियों और 25000 जनजातियों के लोग रहते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल आबादी में दलितों की हिस्सेदारी लगभग 20.14 प्रतिशत है। हर एक क्षेत्र में जाति का प्रभाव जीत-हार का फैसला करता है, यही कारण है कि राजनैतिक पार्टियां हर क्षेत्र से जाति के आधार पर ही लोगों को चुनावी मैदान में उतारती हैं। जाति का मुद्दा राजनीति के चलते भारत में अक्सर विकास, रोजगार, कानून-व्यवस्था जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पीछे छूट जाते हैं और राजनैतिक दलों के लिए जनता को बेवकूफ बनाना ज्यादा आसान हो जाता है।
जाति का प्रभाव उत्तर भारत में ही नहीं, बल्कि दक्षिण भारत में भी समान रूप से देखा जा सकता है।
यही कारण है कि चुनावों को देखते हुए राजनैतिक पार्टियों आरक्षण तो क्या अलग धर्म का दर्जा देने में भी नहीं हिचकिचाती। जिसका सीधा उदाहरण कर्नाटक में देखने को मिलता है. यह पहली बार हुआ है कि सरकार ने लिंगायतों को अलग धर्म का दर्जा दे दिया। कर्नाटक में सरकार बनाने में लिंगायतों की अहम भूमिका होती है। सत्ता पाने के लिए राजनैतिक पार्टियां चुनाव आते ही वोट बैंक के लिए लोगों को रिझाना शुरू कर देती है। जातिवाद के कारण ही अच्छे लोग हाशिए पर चले जाते हैं और जिन लोगों को सच में सरकारी सहायता की जरुरत होती है वे वंचित रह जाते हैं।
यद्यपि राजनीति में जाति का मुद्दा हमेशा हावी रहता है, लेकिन इससे बचने के लिए लोगों को खुद जागरुक होना पड़ेगा। जनता अगर वोट देने का आधार बदल लेती है तो राजनैतिक पार्टियों को भी वोट मांगने का आधार बदलना पड़ेगा। जाति के आधार पर नहीं बल्कि काम के आधार पर उम्मीदवार का चुनाव करें, ताकि आपका प्रतिनिधि अच्छा हो। जब तक जनता जाति के आधार पर बंटती रहेगी, तब तक राजनैतिक पार्टियां यूं ही लोगों को लड़वाकर अपना स्वार्थ साधती रहेंगी।