वैसे तो अंग्रेजों की गुलामी से भारत 15 अगस्त, 1947 को ही आजाद हो गया था लेकिन देश के एक हिस्से पर, रेल ट्रैक पर, आज भी ब्रिटेन का कब्जा है।
यहां से हर साल 1.20 करोड़ा की रॉयल्टी ब्रिटेन को जाती है। देश में एक ऐसी रेल लाइन है, एक ऐसा रेल ट्रैक है जिसका मालिकाना हक भारतीय रेलवे की जगह ब्रिटेन की एक निजी कंपनी के पास है।
1.20 करोड़ का भुगतान
नैरो गेज वाले इस रेल ट्रैक का इस्तेमाल करने वाली भारतीय रेलवे हर साल 1.20 करोड़ रुपए की रॉयल्टी ब्रिटेन की एक प्राइवेट कंपनी को सौंपती है। इस रेल ट्रैक पर शकुंतला एक्सप्रेस पैसेंजर ही चलती है। अमरावती से मुर्तजापुर के 189 किमी का सफर अधिकतम गति 20 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से पूरा करती है।
पहली बार शकुंतला एक्सप्रेस 2014 में और दूसरी बार अप्रैल 2016 में बंद किया गया था। लेकिन स्थानीय लोगों की मांग और सांसद आनंद राव के दबाव में सरकार को फिर से इसे शुरु करना पड़ा। राव का कहना है कि यह ट्रेन अमरावती के लोगों की लाइफ लाइन है। उन्होंने इसे ब्रॉड गेज में कंवर्ट करने का प्रस्ताव भी रेलवे बोर्ड को भेजा है।
खरीदने में भारत सरकार हुई फेल
इस रेल ट्रैक को खरीदने के लिए भारत सरकार कई बार प्रयास कर चुकी है लेकिन तकनीकी कारणों से यह संभव नहीं हो सका। आज भी इस रेल ट्रैक पर ब्रिटेन की कंपनी का कब्जा है। इसकी देखरेख का पूरा काम इस ब्रिटेन की कंपनी द्वारा ही किया जाता है। हर साल पैसा देने के बावजूद यह ट्रैक बहुत जर्जर होता जा रहा है। रेवले अधिकारियों का कहना है कि पिछले 60 सालों से इसकी मरम्मत तक नहीं हुई है। 7 कोच वाली इस पैसेंजर ट्रेन में रोज़ एक हज़ार से भी ज्यादा लोग यात्रा करते हैं।
बता दें कि अमरावती से कपास मुंबई पोर्ट तक पहुंचाने के लिए अंग्रेजों ने इस ट्रैक का निर्माण करवाया था। साल 1903 में ब्रिटिश कंपनी क्लिक निक्सन की ओर से शुरु किया गया रेलवे ट्रैक को बिछाने का काम 1916 में पूरा हुआ था। 1857 में स्थापित इस कंपनी को आज सेंट्रल प्रोविंस रेलवे कंपनी के नाम से जाना जाता है। साल 1951 में भारतीय रेल का राष्ट्रीयकरण करने के बावजूद सिर्फ यही रूट भारत सरकार के अधीन नहीं था।
100 साल पुरानी 5 डिब्बों की इस ट्रेन को 70 साल तक स्टीम ईंजन खींचता था जिसे 1921 में ब्रिटेन के मैनचेस्टर में बनाया गया था। 15 अप्रैल, 1994 को शकुंतला एक्सप्रेस के स्टीम ईंजन की जगह डीजल ईंजन का इस्तेमाल किया जाने लगा। इस रेल रूट पर लगे सिग्नल आज भी ब्रिटिशकालीन हैं। इनका निर्माण इंग्लैंड के लिवरपूल में 1895 में हुआ था।
इस खबर को पढ़ने के बाद कई लोग हैरान हो गए होंगें क्योंकि अब तक तो हम सभी यही सोचते आ रहे थे कि भारत को आजादी मिल गई है। खैर, एक बात है जो अभी तक समझ नहीं आई है कि और वो ये है कि आज भारत तकनीक के मामले में बहुत आगे निकल चुका है फिर इस ट्रैक को खरीदने में तकनीकी कारणों की दुहाई क्यों दी जा रही है। भारत अब तकनीक में इतना भी पीछे नहीं है कि इस रेल ट्रैक को खुद संभाल ना सके।