ब्रह्मचर्य और देवी भक्ति दोनों ही भगवान को पाने का एक ज़रिया हैं!
लेकिन उस से पहले ये आप को आपसे मिलवाते हैं, आत्मा की गहराईयों में उतरना सिखाते हैं और जीवन जीने का आसान और बेहतर तरीक़ा बताते हैं|
आईये ज़रा दोनों में क्या अंतर है, ये जान लेते हैं|
देवी भक्ति में नाच-गाना और संगीत मिलता है| भैरागिनी एक पथ है देवी भक्ति में जहाँ राग का मतलब है रंग जिस से ज्ञात होता है कि वो देवी के रंग की हो गयी! वहीं इसके विपरीत ब्रह्मचर्य का मतलब है वैराग्य हो जाना यानि रंग हीन हो जाना!
रंग हीन होने का मतलब नीरस होना नहीं बल्कि पारदर्शी हो जाना है! यानी कि इतना साफ़ कि आप जीवन-मृत्यु, अच्छे-बुरे के पार देख सकें! और भैरागिनी के पथ पर चलने का मतलब है कि आप उनके ही रंग में रंग जाएँ!
जो भी रास्ता चुनें, दिल से चुनें और फिर उस पर बिना सवाल किये चल पड़ें!
अगर दिमाग़ का ज़्यादा इस्तेमाल करेंगे तो वो हज़ार सवाल पूछेगा और आस्था-श्रद्धा के जवाब नहीं होते, वो सिर्फ़ दिल से होती है! और अगर दिमाग़ से चलना ही है तो पहले अपनी बुद्धि को इतना तीक्ष्ण कर लें कि वो उस बात को भी समझ सके जो दिखाई-सुनाई नहीं देती! तर्क लगाएँगे तो इसी बवंडर में फँसे रहेंगे कि क्या ग़लत है, क्या सही है, क्या अच्छा है, क्या बुरा है!
पर अगर आपकी बौद्धिक शक्ति अच्छी है तो इन मामूली बातों से उठकर जीवन की सही राह पकड़ पाएँगे!
आत्मा का परमात्मा से मिलन चाहते हैं तो ख़ुद को समर्पित करना होगा! जीवन चलता जाता है, लगता है बीता हुआ कल आज की मुसीबत भरी ज़िन्दगी से अच्छा था लेकिन ये सब एक भुलावा है| मुश्किलें पहले भी थीं, आज भी हैं और कल भी रहेंगी! सिर्फ़ उनका रूप-रंग बदलता रहता है| एक बार ख़ुद को समर्पित कर दिया, या तो रंगहीन हो गए या देवी का रंग ले लिया तो फिर इस विश्वास के सहारे जीवन आसान हो जाता है, मुश्किलें परेशान नहीं करतीं! ज़रुरत है तो आस्था-विश्वास की!
कोई भी एक राह पकड़ लीजिये और फिर चल पड़िये अपने उद्देशय की ओर!