सुन्दर युवतियों के यौवन और उनकी ख़ूबसूरती पर पिछले सौ साल बॉलीवुड में हज़ारों गाने लिखे गए हैं|
काली ज़ुल्फ़ों, नशीली आँखों, मतवाली चाल को निशाना बना जाने कितने गीतकार-संगीतकार अपने आप को अमर कर गए|
जब तक तहज़ीब थी, तब तक हीरो, हीरोइन की आँखों, होठों, चाल, ज़ुल्फ़ों की तारीफ करते थकते नहीं थे| फिर वक़्त बदला और हमने उनकी टांगों, बाहों पर निशाना साधा| उसके बाद बारी आई कूल्हे की (याद है करीना कपूर का गाना, “टूह”?) और अभी पिछले दिनों से “चिट्टियाँ कलाईयाँ” ने सबको दीवाना बना रखा है|
तो ज़ाहिर सी बात है कि सामान्य जीवन में हम जितनी तारीफ़ एक लड़की की कर सकते हैं, बिना अश्लील हुए, उतनी हमने कर दी|
तो अब इसके आगे क्या? अब कौन सा अंग बचा जिस पर अगला हिट गाना बनना चाहिए?
शायद आने वाले दिनों में हमें लम्बे, रंग-बिरंगे नाख़ूनों पर कुछ सुनने को मिले! या फिर हो सकता है किसी लड़की की कैंची से तेज़ चलने वाली ज़ुबान पर|
वैसे घुटने, एड़ियां, कोहनी भी गायकी के इतिहास में अपना नाम लिखवाने को आतुर ज़रूर होंगी, बस बॉलीवुड में कोई उनकी फ़रियाद सुन ही नहीं रहा!
लेकिन कोई ये बताये कि सुबह शाम जब इस बात का नारा दिया जाता है कि दिल देखो, शारीरिक सुंदरता तो आनी जानी है फिर क्यों हर वक़्त हर गाना एक लड़की के बदन को टटोलता, बिखेरता, खेलता नज़र आता है?
क्यों नहीं गाने बनते आदमियों की बालों से भरी छाती पर? या उसके कानों पर उग रहे बालों पर?
या चलिए हम सच्ची तारीफ ही करें तो किसी बलिष्ट आदमी के डोलों और उसके सिक्स-पैक पर?
क्यों सिर्फ लड़कियों के शरीर को एक वस्तु की तरह देखा-दिखाया जाता है?
सुंदरता की तारीफ होना बहुत ज़रूरी है पर एक वस्तु की तरह नहीं, एक इंसान की तरह!
गीत-संगीत बहुत गहरा असर डालता है हमारी सोच पर| जो लोग समझदार हैं, वो फर्क करना जानते हैं कि क्या सिर्फ एक गाना है और क्या गाने से ज़्यादा| आसानी से प्रभावित होने वाले आदमी या किशोर अवस्था के पुरुष यह फर्क नहीं कर पाते| और फिर उनके दिमाग में एक लड़की की छवि बस उतनी ही होती है जितना कि एक गाने में बताई जाए, यानि आँखें, कूल्हा, ज़ुल्फ़ें वगेरह-वगेरह!
बेहतर होगा कि गीतों के लफ्ज़ बदलें, या उनका इस्तेमाल कुछ इस तरह से हो कि खूबसूरती की तारीफ भी हो जाए और समाज कोई गलत सन्देश भी ना जाए|
मुश्किल है, नामुमकिन नहीं!
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