बॉलीवुड का दूसरा नाम ग्लैमर की दुनिया है!
ख़ूबसूरती और पैसे की चकाचौंध से यहाँ कोई नहीं बच पाता| देश भर से एक से बढ़कर एक खूबसूरत लड़की इस दुनिया में नाम कमाने आती है लेकिन आख़िर हासिल क्या होता है सफलता की ऊँचाईयाँ छूने के बाद भी? और यह सफलता आख़िर है क्या?
बॉलीवुड में एक्ट्रेस होने का मतलब है छोटे-छोटे से कपड़े पहनना, अपने जिस्म की इतनी ज़्यादा नुमाइश करना कि कल्पना करने लायक कुछ न बचे और फिर मर्दों को अपने लटके-झटकों से उत्तेजित करना! आसान शब्दों में कहा जाए तो मान लेना कि लड़की के पास सोचने कि शक्ति नहीं होती, उसे सिर्फ आदमी की सेक्स की भूख बढ़ाने और मिटाने के लिए पैदा किया गया है|
अधिकतर हिंदी फिल्मों में हीरोइन सर्फ गाने- नाचने और अपना अंग-प्रदर्शन करने के लिए ही होती है और इस काम के उन्हें करोड़ों रुपये भी मिलते हैं! अगर इतना ही होता तो भी ठीक था लेकिन समाज ऐसी अभिनेत्रियों को सर पे बैठा के रखता है, छोटी-छोटी लड़कियां उनसे प्रेरणा ले उनके कदमों पर चलने के सपने देखने लगती हैं|
यानि के आज तो भ्रष्ट हैं ही, आने वाली नस्ल को भी गलत राह दिखा रहे हैं|
किस लिए?
दौलत और शोहरत के लिए!
दुःख तो इस बात का है कि दुनिया भर की फिल्मों में हेरोइनेस के एक सर्वे में पता चला कि भारत की फिल्म इंडस्ट्री में ३५% लड़कियों को आकर्षक दिखने की कोशिश की जाती है जिसके लिए बहुत हद तक नग्न्ता का सहारा लिया जाता है!
जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया के बाद भारत का नंबर आता है अपनी फिल्मों में हीरोइन को सेक्सी कपड़ों में दिखने का, चाहे फिल्म की कहानी में जरूरत है या नहीं! हर फिल्म में बेसिर पैर के आइटम सांग्स इसी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए बनाये जा रहे हैं|
शायद इसका कारण यह है कि बॉलीवुड पुरुष-प्रधान इंडस्ट्री है और औरतों के पास इतनी शक्ति नहीं कि वो यह फैसला ले सकें कि किस तरह से एक महिला को फिल्म में दर्शाया जायेगा!
उम्मीद के नाम पर केवल एक-दो अभिनेत्रियों के ही नाम आते हैं जो अपने हुनर के बल पर बदलाव लाने की छोटी-सी कोशिश कर रही हैं|
इनमे प्रमुख हैं कंगना रनावत जो आशा की किरण ले आई हैं कि शायद लड़कियों को भी इस इंडस्ट्री में बराबरी का दर्जा मिलेगा और उनका शोषण ख़त्म नहीं तो कम तो हो ही जाएगा|
बॉलीवुड से एक ही विनती है कि अपनी ज़िम्मेदारी समझे और मानसिक सोच के पतन से अपने को बाहर निकाल औरत को एक आइटम नहीं, एक इंसान का दर्जा देने की कोशिश करे! उसे सिर्फ हवस मिटाने का जरिया ना बना दे; समाज को साफ़-सुथरे एंटरटेनमेंट की ज़रुरत है, मानसिक तौर पर बीमार एंटरटेनमेंट की नहीं!
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