भोपाल गैस त्रासदी – दो तीन दिसंबर 84 को भोपाल मे कयामत का मंजूर देखा ।
भोपाल गैस त्रासदी में जहाँ रुके थे यानी प्रोफेसर कालोनी स्थित बीजेपी कार्यालय मे वहाँ कुछ असर तो नहीं था पर बडे फजर वहां से पैदल जाते हुए कई लाशे पड़ी देखी जिन्हें उस समय उठाया नहीं गया था सन्नाटे के बीच व भारी मन से पैदल पैदल हमीदिया अस्पताल पहुंच गया वहाँ के हालात बहुत खराब थे.
सुबह सुबह करीब आठ बज गए थे उधर चारों ओर अफरातफरी थी मेरे कालेज के जमाने का एक साथी डाक्टर प्रभूदत्त मोदी अचानक परेशान हाल दिखा जो मुझे देखते ही ऐक दम तपाक से मिला व हाल चाल पूछे ।
बिना ओपचारिकता मैंने कहा तुम अपना काम करो यहां बहुत मरीज आ रहे है.
वह बोला हमें इलाज क्या करना है यह मालूम ही नही ।
बस यह आँखो मे दवा का ड्राप हैं जो सब की आँखों मे डाल रहे हैं । स्टाफ भी नहीं हैं कहीं एक लंबे से व्यक्ति भी आगे आगे अचानक आऐ उन्होंने परिचय अब्दुल जब्बार के नाम से दिया। वह अस्पताल मे सेवा कार्य हेतु यहां रात से ही थे । मैं भी उनके साथ मरीज व लाशो को अस्पताल पहुँचाने मे मदद करने लगा.
डाक्टर मोदी जो मेरे मित्र थे उनकी वजह से मुझे हर जगह आराम से आने जाने की छूट भी मिल गई। स्टाफ व पुलिस वाले मुझे उस जगह जाने से भी नही रोकते थे जहाँ आम पत्रकार या लोगों को जाने नही दिया जाता था । अखबार व संचार सेवा से जुडे देश विदेश के लोगों का तांता लगा था तब एक भरे बदन व घुंघराले बालों वाले सज्जन से परिचय हुआ – वह बी बी सी के मार्कटुली थे मैं उनकी रिपोर्ट रेडियो पर सुनता ही रहता था । सरकार की मंशा म्रत आकडे छुपाने की थी कि किसी तरह मरने वालों की सही तादाद न छपे । तीन ट्रक लाशे हमीदिया के पीछे से भर कर श्मशान जाते मैंने खुद देखी थी । मृतको को वही रखा था त्रासदी के दूसरे दिन तो भोपाल की सभी स्वैच्छिक संस्थाएँ व लोग मुक्त हस्त से दान व सहयोग करने लगे जब्बार साहब व उनके साथी लगाकर मेरे संपर्क मे रहे ।
राजीव गांधी जी का भी इसी दर्मियान हमिदिया मैं आना हुआ. मैं अस्पताल मे ही था.
काफी कड़ी सुरक्षा व्यवस्था थी बहुत कम समय रुक कर उनका काफिला चला गया कुछ पत्रकार साउथ से आए थे, उनको भी पीछे निशचित जगह तक ही जाने दिया जा रहा था. कुछ पत्रकारों को मैं उस जगह लेकर गया जहाँ सब नहीं जा पाती रहे थे । मार्कउ टुली को भी वहां तक नही जाने दिया था.
मै दो साउथ के पत्रकारो को वहाँ तक ले गया उन्होंने मेरे भी बहुत फोटो खींच कर पत्रिकाओं मे छापने का कहा व वह बेहद प्रसंन हुए पर इतनी लाशो व दुखी लोगों के बीच किसको ख्याल था कि फोटो छपे या नहीं । मेरा मकसद था कि किसी तरह मृत लोगों का सही आंकडा तो छपे जो उस वक्त नहीं बताया जा रहा था ।
बैरागढ कपड़ा व्यापारीयो ने गाड़ीयां भर कर कपड़ा म्रतको के कफन के लिये भेज दिया. हम व कई संस्थाओं के लोग मिल कर जहाँ मुर्दे थे वहाँ जा कर सेवा देने लगे ।मुझै ओर अन्य लोग जो अलग अलग धर्मों के मानने वाले थे यह काम सोपा गया कि हम जाति गत पहिचान कर म्रतको को श्मशान या कब्रस्तान जाने वाली गाड़ियों मे रखवा दें ।आदमियो की पहचान करने के लिए हमारे साथी उनका पैजामा या पेंट उतार कर देखते अगर खतना हुआ है तो उसे कब्रस्तान वाली लारियो मे भिजवा देते और अगर खतना न हुई होती तो शमशान वाली गाडी मे भिजवा देते.
मैं अस्पताल से सभी के लिऐ रबर के दस्ताने ले आया था वहाँ मोजूद एक पंडित जी बहुत खुश हुए. वो इस काम को नही कर रहे थे पर दस्ताने पहिन कर करने लगे ।
ओरतो व लड़कियों की पहिचान मे बहुत दिक्कत आई । कुछ ओरतो की लाशें तो बुर्के मे थी यानी इतनी आपाधापी मे भी वह बुरका पहिन कर घर से निकली मांग भरी महिलाओं की व गोदने गुदे हुई की भी पहिचान हो जाती थी पर जिनके ऊपर कोई एसा चिन्ह नहीं था उन्हे हम आपस मे सब आपनी अपनी समझ से कब्रस्तान या श्मशान भेजते पर नेल पालिश लगी ओरते ज्यादातर शमशान मे भेजते थे.
यहाँ यह लगा कि हम ऐसे भारत मे रहते है जहाँ अलग अलग धर्मों के लोग एक दूसरे के मजहब का कितना एहतराम करते है कि कोई मृत व्यक्ति का भी अंतिम यात्रा के समय उस की रीति या विधान से क्रिया कर्म हो ।
यह काम हम शाम तक करते ।आगले दिन फिर सब इस काम मे जुट जाते मै चार दिन भोपाल मे रहा फिर अपने शहर देवास आ गया ।मैरा डाक्टर दोस्त गुजरात चला गया था अब पता नही कहां होगा मै बैंक मे आ गया जब्बार साहब भोपाल मे है व वह गैस पीडितो की आवाज उठते रहते है मै उनसे कभी इस हादसे के बाद मिला भी नही हूं ।सिर्फ़ अखबारों से ही उनकी सक्रियता का पता चलता है ।
ताज्जुब होता है कि भोपाल गैस त्रासदी के वक्त के पेपर बहुत दिनों तक भोपाल गैस त्रासदी के मृतकों की संख्या बहुत कम बताते रहे जो मेरे अनुमान मे तब तीस से चालीस हजार रही होंगी – लेकिन यह दुआ भी है कि ऐसा जवाल खुदा अब न लाए ।
ये था भोपाल गैस त्रासदी का आँखों देखा हाल !