क्या हमारी युवा पीढ़ी ये जानती है कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी न देकर उनकी निर्मम तरीके से हत्याकर शवों को कई हिस्सों में काटकर टुकड़े किए गए थे.
जी हां इस बात को अक्सर भारत की जनता से छुपाया गया है. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इन तीनों क्रांतिकारियों को फांसी न देकर उनकों गैरकानूनी तरीके से मारा गया.
अब सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्यों किया गया. दरअसल, जब इन तीनों क्रांतिकारियों ने अंग्रेज अफसर सांडर्स की हत्या की थी तो मर जाने के बाद भी सांडर्स पर भगत सिंह ने तीन गोलियां दागी थी. गोली लगने के बाद सांडर्स की मौत हो गई.
लेकिन जब सांडर्स की मौत हुई उस सयम वह नौजवान था और कुछ समय पहले ही उसकी इंगेजमेंट हुई थी. जिससे सांडर्स की इंगेजमेंट हुई वह वायसराय के पीए की लड़की थी.
वायसराए के पीए का जो दामाद बनने जा रहा था उसकी हत्या से पूरा अंग्रेजी शासन आग बबूला हो गया. वहीं सांडर्स के परिजन प्रतिशोध ले सकें इसके लिए इन देश भक्तों को फांसी पर लटकाने का नाटक किया गया. आपको बता दें कि भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की फांसी के साथ जो बर्बर कांड किया गया उस क्रूरता की मिसाल दुनिया में नहीं मिलती. इन तीनों क्रांतिकारियों को अधमरा कर बाद में उन्हें गोलियों से भूना गया. इसके बाद उनके अंग अंग काटे गए.
दरअसल 23 मार्च 1931 को अंग्रेजों ने अपने ट्रोजन हार्स नामक प्लान को क्रियान्वित किया. तीनों को फांसी पर लटकाने का नाटक किया गया. जिन अंग्रेज अफसरों को यह जिम्मा सौंपा गया था उस टीम का नाम डेथ स्क्वायड रखा गया था.
बताया जाता है कि फांसी के फंदे से उतारने के बाद तीनों को लाहौर कैंटोमेंट बोर्ड के एक गुप्त स्थान पर लाया गया. जहां जेपी सांडर्स के रिश्तेदारों ने भगत सिंह और उनके साथियों को गोलियों से छलनी किया.
भारतीयों को इस बात की भनक न लगे कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी न देकर उनकों अमानवीय तरीके से मारा गया है इसलिए फांसी की तय तारीख 24 मार्च से एक दिन पहले यानी 23 मार्च को रात को ही उनकी हत्याएं कर दी गईं.
गौरतलब हो कि फांसी आमतौर पर सुबह के समय दी जाती है. जबकि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को सुबह के बजाय रात में ही फांसी दी गई. यही नहीं जैसा कि होता है कि मृतक के शव का का पोस्टमार्टम कराकर शव को उनके परिजनों को सौंपा जाता है. वह भी नहीं किया गया.
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू के शव से अंग्रेजों का भेद न खुल जाए इसलिए शव परिजनों को न देकर इनका अंतिम संस्कार लाहौर से 80 किलोमीटर दूर हुसैनीवाला में गोपनीय तरीके से कर दिया गया.
इसी दौरान यहां लाला लाजपत राय की बेटी पार्वती देवी और भगत सिंह की बहन बीबी अमर कौर समेत हजारों की संख्या में लोग इकट्ठा हो गए. इतनी बड़ी भीड़ को वहां देख अंग्रेज उनके शवों को अधजला छोड़कर भाग निकले.
अंग्रेजों के वहां भागने के बाद लोगों ने तीनों शहीदों के अधजले शवों को आग से बाहर निकाला. उसके बाद फिर उन्हें लाहौर ले जाया गया.
यहां लाहौर में आकर तीनों शहीदों की बेहद सम्मान के साथ अर्थियां बनाई गईं. उसके बाद 24 मार्च की शाम हजारों की भीड़ ने पूरे सम्मान के साथ उनकी शव यात्रा निकाली और फिर उनका अंतिम संस्कार रावी नदी के किनारे किया. ये वो जगह थी जहां लाला लाजपत राय का भी अंतिम संस्कार किया गया था.
यही कारण है कि लोग कहते हैं कि शहीदों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की चिताओं को एक बार नहीं बल्कि दो बार जलाया गया था.
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