विज्ञापन की दुनिया में कहते हैं कि सबकुछ चलता है.
साम-दाम-दंड-भेद सभी का प्रयोग करने की यहां पूरी स्वतंत्रता रहती है. वैसे ये आजादी इन्हें दी नहीं गई है, इन्होनें खुद की इसका निर्माण कर लिया है.बस कुछ भी करके इन कंपनियों को अपने प्रोडक्ट लोगों के बीच में पहुंचाने होते हैं और लोगों के जहन में जगह बनाकर, इनको मानसिकता पर वार करना होता है.
आपको अच्छी तरह से याद होगा, 90 के दशक में एक विज्ञापन आता था सफोला का. इसमें एक नन्हा-सा बच्चा जब घर छोड़कर जा रहा होता है तो उसे जलेबी का लालच देकर रोक लिया जाता है. ये एक लंबे समय तब लोगों के बीच में छाया रहा था. गलियों में और स्कूलों में हम इसको न जाने कितने बच्चों के मुंह से सुनते थे. इसने कहीं भी, दर्शकों को परेशान नहीं किया था और सफोला ने शायद , इसी कारण घरों में जगह बना ली थी.
अब अगर हम आज की तस्वीर देखते हैं तो विज्ञापनों की हमारी दुनिया में हर-रोज ही परिवर्तन हो रहे हैं. आप ध्यान से देखें तो ये बदलाव आपको बैचेन करता दिखेगा.
अभी हाल ही में बैंक एचडीएफसी ने अपना एक नया एड लोंच किया, जिसमें एक छोटी-सी बच्ची को अपाहिज दिखाया गया है. बच्ची का पिता उसके लिये, एक कृत्रिम पैर का निर्माण करवाता है और बच्ची उसी के सहारे वह कथक पेश करती है.
अब अगर हम एक नजीरिये से देखें तो यह विज्ञापन बहुत ही सरल और प्रिय लगता है, लेकिन वहीं दूसरी तरफ यह दर्शकों को मानसिक रूप से परेशान भी कर देता है.
इसी तरह का एक और विज्ञापन आया था ‘फोरच्यून घर के खाने का’. इसमें एक बूढ़ी मां, अपने बीमार बच्चे के लिये खाना लेकर आती है. इस मां का बेटा अस्पताल में है, पर वहां की नर्स, मां को घर का खाना, अपने बीमार बेटे को नहीं खिलाने देती. वह कितनी परेशान हो जाती है आप खुद ही इसे देख सकते हैं.
अब अगर एक बूढ़ी मां इस तरह का विज्ञापन देखती है और बदकिस्मती से उसका बेटा, वहां मां के पास नहीं है, तो ऐसे में वह खाना तो शायद, अपने बच्चे को ना खिला पाये किंतु उसपर कितना मानसिक रूप से अत्याचार होगा, इसका अनुमान आप खुद ही लगा लें.
ज्ञात हो कि विज्ञापनों की दुनिया के लिये भी, कुछ मानक तय किये गये हैं और इस तरह की चीजें, हमारे दर्शकों को मानसिक रूप से कुछ दर्द भी दे जाती हैं.
इस तरह का लेखन और चित्रण, किस हद तक हमारे समाज के लिये सही है, इसका हमें खुद निर्धारण करना होगा और जो मानक तय किये गये हैं उनका भी ध्यान हमें रखना होगा।
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