हार ही जीत – यूँ तो ज़िन्दगी मुश्किल नहीं, लेकिन आसान भी नहीं.
जिंदगी के लिए जैसा नजरिया रखोगे, ज़िन्दगी आपको वैसी दिखेगी. कुछ लोगो के पास सबकुछ होकर भी हार जाते है और कुछ लोगो के पास कुछ नही होकर भी सब कुछ जीत जाते हैं.
हारकर जीतना – ज़िन्दगी में हारता वही है जो हार मानता है क्योकि हारकर जो चलना और दौड़ना जानता है उनके लिए उनकी हार ही जीत का कारण बन जाती है.
आज हम आपको कुछ ऐसे लोगो के बारे में बताएँगे जो हार मानने वालों के लिए आदर्श है.
आइये जानते हैं कौन है वो लोग जिनका मकसद था हारकर जीतना – हार ही जीत है
डॉ सुरेश आडवाणी
सुरेशजी जब आठ साल के थे तब उन्हें पोलियो हो गया था, जिनके कारण उन्हें विकलांग की श्रेणी में रख दिया गया. लेकिन उन्होंने इस विकलांगता को कभी अपनी कमजोरी नहीं बनने दी. ज़िन्दगी की कठिनाई और चुनौतियों को स्वीकार करते हुए खुद को सक्षम इंसानों की श्रेणी से ऊपर खड़ा कर दिया और कैंसर चिकित्सा विज्ञानियों के साथ अपनी जगह बना ली. इतना ही नहीं बल्कि उन्हें भारत में हेमतोपोइएतिक स्टेम सेल प्रत्यारोपण प्रारंभ किया. भारत में इसका श्रेय भी इनको ही है. इनका कैंसर विज्ञान क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान है. यह पहले ऑन्कोलॉजिस्ट हैं, जिन्होंने भारत में सफलतापूर्वक एक बोन मैरो ट्रांसप्लांट किया. सुरेशजी को 2002 और 2012 में पद्म श्री व पद्म भूषण का सम्मान दिया गया.
सुधा चंद्रन
अभिनेत्री और शास्त्रीय नृत्यांगना सुधा चंद्रन का 16 साल की उम्र में उसके टखने के एक घाव ने उनके पैर को संक्रमित कर दिया था, जिसके कारण पैर काटना पड़ा. उसके बाद उन्हें ‘ जयपुर फुट’ कृत्रिम पैर लगाया गया. उस पैर के साथ सुधा देश की सबसे लोकप्रिय शास्त्रीय नर्तकियों में शामिल हो गई और भरतनाट्यम का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शन किया. इसके साथ उन्होंने भारतीय टेलीविजन और फिल्म उद्योग में भी अद्भुत प्रतिभा और कला के लिए प्रसिद्धि और ख्याति प्राप्त की.
स्व. रविंद्र जैन
रविन्द्र जी जन्म से ही नेत्रहीनों थे. लेकिन 1970 के दशक में प्रसिद्ध संगीत निर्देशकों में रहे. उन्होंने कम उम्र से ही गाना प्रारंभ कर दिया था, जिसके कारण भारतीय फ़िल्म और संगीत उद्योग में प्रवेश कर लिया. उन्होंने अनगिनत सुपर हिट हिंदी गाने लिखे, गाये और संगीत दिया.
मलाथी कृष्णमूर्ति होल्ला
इनकी एक वर्ष के बाद तेज बुखार होने से अल्पायु पूरी रूक गई थी फिर दो साल बाद ऊपरी शरीर में ताकत लाने के लिए नियमित रूप से सदमा इलाज चला. लेकिन फिर भी कमर से नीचे का भाग कमजोर ही रह गया. अपनी इस कमजोरी को स्वीकार करते हुए मलाथी ने खेल में ही कैरियर बनाने का सोचा और याहू कॉलेज के विभिन्न खेलों में हिस्सा लेना प्रारंभ कर दिया. पैरा – ओलंपिक के साथ और भी विभिन्न अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया. फिर याहू 200 मीटर में स्वर्ण पदक, डेनमार्क में 1989 विश्व मास्टर्स पर डाल गोली मार, डिस्कस और भाला फेंक में अपनी प्रतिभा दिखाई. आज की तारीख में उनके पास 300 से अधिक पदक, अर्जुन पुरस्कार और पद्म श्री मिल चुके है.
साई प्रसाद विश्वनाथन
विश्वनाथन जब बच्चे थे, तब उनके शरीर का निचले आधे भाग ने सनसनी खो दी थी, जिसके कारण उनको भी विकलांगता देखनी पड़ी. लेकिन उनके मजबूत इरादे और बुलंद हौंसलों ने उनको हार नहीं मानने दिया और वह भारत के पहले स्काइडाइवर बन गए. उसका नाम विकलांग के साथ 14,000 फीट से skydive करने वाले पहले भारतीय होने के लिए लिम्का बुक दर्ज है. आज उनका एक संगठन है, जो उच्च शिक्षा से वंचित छात्रों को छात्रवृत्ति देता है.
एच बोनिफस प्रभु
प्रभु चार साल की उम्र में ही Quadriplegic बन गए, लेकिन उनकी कड़ी मेहनत और लगन से एक Quadriplegic व्हीलचेयर टेनिस खिलाड़ी है. अब तक इनको 1998 के विश्व चैंपियनशिप में पदक और पद्म श्री पुरस्कार प्राप्त है.
इन लोगो ने अपने जीवन में विकलांगता के कारण कई चीजे झेली. लेकिन इनके बुलंद हौसले और मजबूत इरादों ने इनकी विकलांगता को कभी कमजोरी नहीं बनने दिया क्योंकि हारकर जीतना उनका मकसद था और आज ये और इनके जैसे कई लोग है जो समाज में आदर्श बन गए हैं.
हार ही जीत – हार ना मानना भी एक जीत होती है. हार न मानने के कारण ही आज ये सब एक ऐसी ऊंचाई पर जा खड़े हुए है, जहाँ एक सामान्य इंसान भी नहीं पहुँच सकता.
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