कहते हैं जिसके हौंसले और इरादे मज़बूत होते हैं वो अपने जीवन की बड़ी से बड़ी लड़ाई जीत लेते हैं. जबकि कई लोग अपने जीवन में आनेवाली परेशानियों से हार मान लेते हैं. लेकिन अंत में जीत उसी की होती है जो अपने जीवन में आनेवाली मुसीबतों का डटकर सामना करता है.
आज हम आपको मजबूत इरादे और हौंसले की एक ऐसी कहानी बताने जा रहे जिससे ना सिर्फ आपको नई प्रेरणा मिलेगी बल्कि मुसीबतों से लड़ने की ताकत भी मिलेगी.
दरअसल ये कहानी है कोलकाता के पास एक छोटे से गांव में रहनेवाली 74 वर्षीय सुभाषिनी मिस्त्री की. यह बुजुर्ग महिला गांव वालों के लिए एक अस्पताल बनाना चाहती थी और सालों से सब्जी बेच-बेचकर आखिरकार इस महिला ने अपने सपने को साकार कर ही दिया.
अकाल के दौरान हुआ था सुभाषिनी मिस्त्री का जन्म
अंग्रेजों के शासन काल के दौरान साल 1943 में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा था इसी अकाल के दौरान सुभाषिनी मिस्त्री ने जन्म लिया. सुभाषिनी के पिता किसान थे और उनके 14 बच्चों में से एक थी सुभाषिनी. सुभाषिनी के जन्म के कुछ साल बाद उनके भाई-बहनों में 7 की मौत हो गई.
गरीब घर में जन्म लेनेवाली सुभाषिनी की शादी महज 12 साल की उम्र में हंसपुकुर गांव में खेती में मजदूरी करनेवाले चंद्र नाम के एक शख्स से हो गई. शादी के कुछ ही सालों में एक के बाद एक करके सुभाषिनी ने चार बच्चों को जन्म दिया.
समय पर इलाज ना मिलने से हुई थी पति की मौत
बताया जाता है कि साल 1971 में सुभाषिनी के पति चंद्र की अचानक तबियत बिगड़ गई. उस वक्त सुभाषिनी के पास इलाज के लिए पैसे नहीं थे लिहाजा पैसों की कमी के चलते और समय पर सही इलाज ना मिल पाने की वजह से उसके पति की मौत हो गई.
पति की मौत के बाद गरीब और अनपढ़ सुभाषिनी के सिर पर चार बच्चों के पालन पोषण की जिम्मेदारी आ गई थी. कम उम्र में विधवा होनेवाली सुभाषिनी ने फैसला किया कि जो उसके और उसके पति के साथ हुआ वो और किसी के साथ ना हो इसके लिए वो खुद गांव में एक अस्पताल बनवाएंगी.
अस्पताल बनवाने के लिए बेचने लगी सब्जियां
बताया जाता है कि सुभाषिनी का एक बेटा पढ़ने में काफी होनहार था इसलिए उन्होंने उसे कोलकाता के एक अनाथ आश्रम में भेज दिया और बाकी 3 बच्चों की परवरिश करने के लिए वो दूसरों के घरों में खाना बनाने, बर्तन-कपड़े धोने, झाडू-पोछा लगाने का काम करने लगी.
फिर वो धापा गांव आई और वहां रहकर सब्जियां उगाकर उसे बेचना शुरू कर दिया. सब्जियां बेचकर सुभाषिनी की अच्छी कमाई हो जाती थी और फिर उन्होंने पोस्ट ऑफिस में बचत खाता खुलवा लिया और अस्पताल बनवाले के लिए पैसे जमा करने लगीं.
कई सालों तक थोड़ी-थोड़ी बचत करने के बाद साल 1992 में सुभाषिनी हंसपुकुर गांव में लौट आईं और 10 हजार रुपये में यहां एक एकड़ जमीन खरीदी. इसके अगले साल उन्होंने गांववालों की मदद से इस जमीन पर एक टेंपररी शेड बनवाया.
सुभाषिनी ने ह्यूमैनिटी अस्पताल की शुरूआत की
सुभाषिनी ने इस अस्पताल को ह्यूमैनिटी अस्पताल नाम दिया और शहर के डॉक्टरों से इस अस्पताल में मुफ्त सेवा देने के लिए विनती की. कुछ भले डॉक्टर मुफ्त में अपनी सेवा देने के लिए तैयार हो गए. बताया जाता है कि इस अस्पताल के उद्घाटन के पहले दिन ही करीब 252 मरीजों का इलाज किया गया था.
कई मुसीबतों का सामना करते हुए सुभाषिनी का यह कांरवा आगे बढ़ता गया और आज ह्यूमैनिटी अस्पताल के पास 3 एकड़ जमीन है और 9 हजार स्क्वायर फीट में फैले दो मंजिला इमारत में इस अस्पताल का विस्तार किया गया है.
इस अस्पताल में होता है गरीबों का मुफ्त में इलाज
आज यह अस्पताल भले ही दो मंजिला हो गया है लेकिन यहां गरीबों का मुफ्त में ही इलाज किया जाता है और जो लोग गरीबी रेखा से ऊपर हैं उनसे सिर्फ 10 रुपये की फीस ली जाती है.
अस्पताल बनाने के अपने सपने को साकार रुप देनेवाली सुभाषिनी का मानना है कि उनका मिशन अभी पूरी नहीं हुआ है. जिस दिन यह अस्पताल सभी सुविधाओं से संपन्न हो जाएगा और 24 घंटे मरीजों को अपनी सेवाएं दे पाएंगा उस दिन उनका ये सपना पूरा हो जाएगा. हालांकि सुभाषिनी को लोकहित के लिए किए गए इस काम के लिए कई सारे सम्मान भी मिल चुके हैं.
बहरहाल सुभाषिनी को ये किसी भी सूरत में मंजूर नहीं था कि उनके पति की तरह कोई भी इलाज के अभाव के चलते अपना दम तोड़ दे, यही सोचकर उन्होंने अस्पताल बनाने की ठान ली और अपने इस सपने को साकार करके ही दम लिया.
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