विद्याधर – भारत में समय-समय पर कुछ अद्भुत प्रतिभावान शासक हुए हैं, जिन्होंने वलिदान देकर नहीं बल्कि अपनी बुद्धि,चतुराई और कुशलता से अपने देश की सेवा की।
इसी कड़ी में एक ऐसे राजवंश का नाम आता है जिसकी ख्याति तो बहुत ज्यादा नहीं है पर उनकी कार्यकुशलता की चर्चा आज भी होती है। आज भी जब हम बुंदेलखंड जाते हैं तो एक तो ‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी’ जैसी कविता सुनने को मिलती है या फिर ‘आल्हगान’ जैसे किस्से।
लेकिन जो भी कहें आज इन्ही सब लोक कथाओं में वो पुराने राजा- महाराजा आज भी जिन्दा है, जिन्होंने सच्चे तरीके से अपनी मातरभूमि की सेवा की. इन्ही में एक चंदेल राजा का नाम है “धंगदेव और विद्याधर” जिन्होंने अपनी कूटनीति के बल पर सिर्फ अपने राज्य की रक्षा ही नहीं की बल्कि महमूद गजनवी जैसे शक्तिशाली लुटेरे की लालसाओं पर भी विराम चिन्ह लगा दिया।
चंदेल शासको के साम्राज्य को मुख्यत बुंदेलखंड के छतरपुर,खजुराहो के आसपास देखा जाता है लेकिन कुछ शासक इतने भी प्रतापी हुए की उनके राज्य ने मालवा की सीमायें भी छुई। इस वंश के संस्थापक के रूप में नन्नुक को माना जाता है किन्तु वास्तविक संस्थापक हर्ष को माना जाता है।इस क्रम में नन्नुक-हर्ष-यशोवर्मन-धंग-विद्याधर–कीर्तिवर्मन- मदनवर्मन-परमार्दि इत्यादि शक्तिशाली राजाओं का नाम आता है।
चूँकि आज इस आर्टिकल में विद्याधर और कीर्तिवर्मन का जिक्र आवश्यक है इस लिहाज से विद्याधर के प्रयासों को निम्न तरीके से देखा जा सकता है-
विद्या- धंग के उपरान्त उसका पुत्र गण्ड चन्देल राज्य का स्वामी हुआ।
उसने भी अपने पिता की भांति महमूद गजनवी के विरुद्ध संगठित किये गये हिन्दू राजाओं के संघ में भाग लिया था। आनन्द पाल (जयपाल) के अनुरोध पर महमूद के आक्रमणों का सामना करने के लिए हिन्दू राजाओं ने अपना संघ बनाया था, परन्तु यह संघ भी महमूद के प्रसार को रोकने में सफल न हो सका। उसके बाद विद्याधर जैजाकभुक्ति राज्य का अधिकारी हुआ। विद्याधर ने, महमूद के प्रति आत्मसमर्पण करने के कारण राज्यपाल प्रतिहार को घोर दण्ड दिया और कन्नौज के साम्राज्य को नष्ट करने का प्रयत्न किया। परमार नरेश भोज-प्रथम और कलचुरि राजा कोक्कल-द्वितीय के साथ विद्याधर की शत्रुता थी परन्तु उसके सामने इन राजाओं की शक्ति तुच्छ थी। उसका प्रभाव चम्बल से लेकर नर्मदा तक फैला हुआ था। अतएव मुस्लिम लेखकों ने उसे अपने समय का सबसे प्रभावशाली राजकुमार कहा है।
गजनी के महमूद ने जब 1021 में भारत पर आक्रमण किया और विद्याधर के सामने आया तो कुछ लेखकों के अनुसार, विद्याधर रणक्षेत्र से भाग खड़ा हुआ। परन्तु विद्या के रणभूमि से भागने के विवरण पर कुछ विद्वान विश्वास नहीं करते। डॉ. रे ने इस बात का खण्डन किया है कि विद्या बिना लड़े ही रणभूमि से भाग निकला था। अधिक प्राचीन लेखकों के विवरण को अपने विश्वास का आधार बनाते हुए रे महोदय ने लिखा है कि एक भयंकर, किन्तु अनिश्चयात्मक संग्राम हुआ और चन्देल नरेश रात्रि के अंधकार में रणनीति के दृष्टिकोण से पीछे हट गया। अगले वर्ष उन दोनों में पुन: संघर्ष हुआ, किन्तु महमूद को ग्वालियर तथा कालिंजर के विरुद्ध सफलता प्राप्त न हो सकी। इसमें कोई संदेह नहीं की महमूद को इस बात का अनुभव हो गया कि विद्याधर के अधीन चन्देल राज्य, राज्यपाल के अधीन प्रतिहार राज्य से, काफी भिन्न और अधिक शक्तिशाली था।
महमूद ने दो बार चंदेलों पर आक्रमण किए, परन्तु लम्बे घेरों के बाद भी उनके दुर्गों पर अधिकार ने कर सकने के कारण उसे लौट जाना पड़ा। उसने विद्याधर के साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित कर लिया। डॉ. मजूमदार ने लिखा है कि विद्याधर ही ऐसा अकेला भारतीय नरेश था जिसे इस बात का गौरव प्राप्त है की उसने सुल्तान महमूद की विजय पिपासा प्रवृत्ति को दृढ़ता पूर्वक रोका और उस सहानुभूतिशून्य विजेता के द्वारा विवेकशून्य विनाश से अपने राज्य को बचा लिया। 1029 ई. में विद्याधर का देहान्त हो गया।