राजनीति में जिस तरह से सेक्युलरिज्म की दुहाई दी जाती है वो हमेशा से ही झूठी और विकृत पंथनिरपेक्षता से ज़्यादा और कुछ नहीं होती .
आज बस ये नेताओं के द्वारा वोट मांगने का ज़रिया मात्र रह गई है. ध्यान देने पर ये किसीको भी दिख सकती है. सेक्युलरिज्म पर आए दिन विवादों का साया इसलिए भी रहता है क्योंकि हमारे देश में इसकी कोई आधिकारिक परिभाषा नहीं है.
फिर बात चाहे संविधान की हो या संसंद में कानून बनाने की बात हो या सुप्रीम कोर्ट के द्वारा अबतक किसी निर्णय की. सबसे दुखदायक बात तो ये है कि नेताओं, सुप्रीम कोर्ट और दुलारे बुद्धिजीवी वर्ग ने भी इस शब्द को अस्पष्ट रहने देने की सिफारिश की है. इसी के सहारे देश में एक विशेष प्रकार की राजनीति की जाती है जो हिंदू विरोधी है और इसी का लाभ लेकर देश-विदेश की भारत विरोधी शक्तियां भी अपना कारोबार करती रहतीं हैं.
इस देश में बौद्धिक विचार-विमर्श में प्रायः हिंदू शब्द को केवल उपहास या गाली देने के रूप में प्रयोग किया जाता है. प्रसिद्ध पत्रकार तवलीन सिंह के अनुसार, भारत में सेक्युलरिज्म आज हिंदू सभ्यता के विरुद्ध एक चुनौती बनकर उभरा है. अगर इतिहास की तरफ मुड़ा जाए तो ज्ञात होगा कि भारतीय सभ्यता जब अपने उत्कर्ष पर थी तो हिंदू सभ्यता के ही कारण, जिसने संपूर्ण विश्व को गणित, दर्शन, धर्म और साहित्य तक हर ओर बेशकीमती उपहार दिए किंतु आज यही बात कहना हिंदू सांप्रदायिकता कहलाने लगता है.
बड़े ही आश्चर्य की बात है कि दुनिया के इस सबसे बड़े हिंदू देश में हिंदू-विरोध ही सेक्युलरिज्म की और बौद्धिकता की कसौटी बन गया है. अपरिभाषित सेक्युलरिज्म के डंडे से ही हिंदू मंदिरों पर सरकारी कब्ज़ा कर लिया जाता है. इतना ही नहीं कई मंदिरों की आमदनी से दूसरे समुदाय के धार्मिक कर्मकांडों को करोंड़ों का अनुदान दिया जाता है. हद तो तब हो जाती है जब एक ही कार्य के लिए ईसाई कार्यकर्त्ता को पद्म विभूषण दिया जाता है वहीं हिंदू समाजसेवी को सांप्रदायिक कहकर उसका अपमान किया जाता है. नितांत अप्रमाणित आरोप पर भी जहाँ हिंदू धर्माचार्य गिरफ्तार कर अपमानित करते हैं जबकि दूसरे धर्मों के धर्मगुरुओं को देशद्रोही बयान देने, संरक्षित पशुओं को अवैध रूप से अपने घर में लाकर बंद रखने पर भी उन्हें छुआ तक नहीं जाता. उल्टे उन्हें राजनीतिक निर्णयों में विश्वास में लेकर उनकी शक्ति बढ़ा दी जाती है. खुंकार आतंकवादियों को भी लादेन जी एवं अफज़ल साहब जैसा सम्मानित संबोधन किया जाता है.
सेक्युलरिज्म अगर वैधानिक रूप से परिभाषित हो गया तो फिर कोई भी मनमानी नहीं की जा सकेगी.
इसकी अस्पष्टता के कारण ही आज शिक्षा से लेकार राजनीति तक हर ओर भारत में अन्य समुदायों को हिंदुओं से अधिक अधिकार मिले हुए हैं. देश में सेक्युलरिज्म की चार परिभाषाएं हैं जबकि कोई भी वास्तविक नहीं कही जा सकती. एक परिभाषा जो 1973 में न्यायधीश एचआर खन्ना ने दी थी जिसके मुताबिक़ राज्य मज़हब के नाम पर किसी नागरिक के विरुद्ध पक्षपात नहीं करेगा. वहीं, कुछ सालों के बाद दूसरी परिभाषा कांग्रेस पार्टी ने दी- सर्वधर्म समभाव. तीसरी परिभाषा भाजपा ने दी- न्याय सब को, तरजीह किसी को नहीं. चौथी परिभाषा नहीं एक टिप्पणी है जो सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायधीश और मानवाधीकार आयोग के पूर्व अध्यक्ष एमएन वेंकटचलैया की होने के कारण इसका महत्व है. इसके अनुसार सेक्युलरिज्म का अर्थ बहुसंख्यक समुदाय के विरुद्ध नहीं हो सकता. गौरतलब है कि संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर ने भारतीय संविधान को सेक्युलर नहीं माना था क्योंकि उन्हें लगता था कि ये शब्द विभिन्न समुदायों के बीच भेदभाव उत्पन्न कराता है.
1976 में इमरजेंसी के दौरान कांग्रेस ने 42वां संशोधन करके संविधान की प्रस्तावना में सेक्युलर शब्द ज़बरदस्ती जोड़ दिया था फिर 1978 में आई जनता सरकार ने इसे लोकसभा में पारित करवा दिया था. आखिर में राज्यसभा में कांग्रेस ने ही इसे पारित होने से रोक दिया.
इससे पता चलता है कि संविधान की प्रस्तावना में सेक्युलर शब्द गलत उद्देश्य से जोड़ा गया था. इसीलिए उसे आज भी जानबूझकर अपरिभाषित रखा गया ताकि जैसा चाहें, वैसे इसका उपयोग किया जा सके. एक अर्थ नहीं तो दूसरा माना जाना चाहिए पर कोई-न-कोई वैधानिक अर्थ तो होना ही चाहिए जिससे विभिन्न समुदायों के बीच आए दिन बढ़ती दूरी एवं झगड़े को रोका जा सके.