मुस्लिम समाज में शादी – इस दुनिया में कई सारे धर्म है. जिसमें से हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई, बौद्ध इत्यादि धर्म ने इस विश्व पर अपनी प्रधानता सिद्ध की है।
जिसमें से हिन्दू और मुस्लिम को धर्म के मामले में अक्सर बहुत कट्टरता के साथ देखा जाता रहा है। इस दुनिया में ऐसे कई देश हैं, जो धर्म को बहुत महत्व देते हैं जिसमें से हिन्दुस्तान सबसे आगे हैं। यहाँ भांति-भांति की परम्पराएँ और रीती रिवाज चलते हैं। जिनमें हिन्दुओं के अलग रिवाज है तो मुस्लिमों के अलग।
आज हम बात करने वाले हैं, ऐसे ही एक रिवाज शादी यानि विवाह की। जिसे हर धर्म, हर देश, हर समाज, यहाँ तक कि हर इंसान मानता है, फिर चाहे वह हिन्दू हो, मुस्लिम हो या फिर इसाई।
इस विश्व में हर एक समाज में शादी करने का तरीका अलग होता है, जिस तरह हिन्दुओं में वैदिक विधि को फॉलो करते हुए साथ फेरे और मंगलसूत्र सबसे ज्यादा जरूरी माने जाते हैं, तो वहीँ इसाई धर्म में शादी के दौरान किस को सबसे ज्यादा महत्व दिया जाता है।
लेकिन आपको बता दे कि इन सब से अलग वहीँ मुस्लिम समाज में शादी करने के तरीके दुसरे धर्मों से अलग है।
मुस्लिम समाज में शादी अथवा विवाह को निकाह कहा जाता है, जिसे इस्लाम धर्म के ज्ञाता यानी क़ाज़ी पढ़ते हैं। इस्लाम धर्म में निकाह के दौरान किसी भी लड़की का तीन बार ‘कबूल है’ कहना सबसे ज्यादा जरूरी माना गया है। जब तक लड़की तीन बार कबूल ना कह दे तब तक शादी को जायज नहीं माना जा सकता। आपको बता दें की यह भी सच है कि इस्लाम में एक इंसान कई सारी शादी कर सकता है. लेकिन उसका उद्देश होना चाहिए।
आपको बता दें की मुस्लिम समाज में शादी करने की दो विधिया है, पहली विधि जिसे निकाह कहा जाता है. इसमें शरिया अनुवंध और सुन्नत तरीकों के साथ विवाह होता है। इसमें दूल्हा और दुल्हन के बीच एक करारनामा होता है, जिसमें दोनो लोगों की सहमती का होना बहुत जरूरी होता है। साथ ही यहाँ दुल्हे को चाहिए कि निकाह का शुल्क जिसे महर कहा जाता है, उसे अदा करे।
इसके अलावा इस्लाम में एक और विवाह का तरीका होता है, जिसे मुताह यानी अस्थायी विवाह भी कहते हैं।
लेकिन आपको बता दें कि इस्लाम की अपनी इस संस्कृति के अलावा कुछ ऐसी चीजें भी है, जो भारतीय संविधान और मानवता की नज़र से गलत देखी जाती है. जैसे फतवा, तीन तलाक, एक पुरुष का कई स्त्रियों से विवाह. इत्यादि. लेकिन जो भी हो अगर इन् तीनो चीजों को इस्लाम के पॉइंट ऑफ़ व्यू से देखा जाए तो कुछ और मतलब निकलता है, लेकिन राजनीती के नज़रिए से देखा जाए तो कुछ और। समय के साथ हुए बदलाव ने और लोगों के स्वार्थ ने धर्म को अपने अनुसार बदल लिया है. जिसके कारण लोगों की धारणाएं भी बदली है।
अतः हमें उन पहलुओं को मानना है जिन्हें खुद कुरआन-ऐ-शरीफ बताता है, ना की उन पहलुओं को जिन्हें राजनीती के कीचड में लिपटे अंधे धर्म गुरु।