हाइफा की लड़ाई – जब भी कभी भारतीय सैनिकों को अपना पराक्रम दिखाने का मौका मिला है उन्होंने अपना बलिदान देकर जीत के झंडे गाड़े है।
आज हम आपको ऐसी एक ऐतेहासिक घटना के बारे में बताने जा रहे है जिसमें भारतीय सैनिकों ने अपना पराक्रम दिखाया था। ये बात प्रथम विश्व युद्ध के दौरान की जब आधुनिक हथियारों से लैस जर्मन और तुर्की सैनिकों को भारतीय सैनिकों से तलवार और भाले से धूल चटा दी थी।
ये बात 1918 की है जब दुनिया में प्रथम विश्व युद्ध का दौर अपने अंतिम चरण में चल रहा था।
उस समय हाइफा पर जर्मन और तुर्की सेना का कब्ज़ा था और भारतीय सैनिकों को बहाई समुदाय के आध्यात्मिक गुरु अब्दुल बहा को रिहा कराकर हाइफा को आजाद कराने का काम रॉयल ब्रिटिश इंडियन आर्मी ने सौंपा था। भारतीय सैनिकों को हाइफा, नाजेरथ और दमश्कस को जर्मन-तुर्की सेना के कब्जे से आज़ाद कराना था, जो कि आज इजरायल और सीरिया में स्थित है।
23 सितंबर 1918 को हाइफा के अंदर जर्मन और तुर्की सैनिक मशीनगन और आधुनिक हथियार लेकर तैयार खड़े थे।
उनके सामने हाइफा की लड़ाई में भारतीय सैनिक थे जिनके पास कोई ऑटोमेटिक हथियार नही था।
ये लोग घोड़ों पर सवार थे और भाले और तलवारें लिए हुए थे। उस दिन दुनिया को एक घुड़सवार सेना के वो पराक्रम को देखना था जो इतिहास में कभी दोहराया नहीं जा सका।
जर्मन और तुर्की सैनिकों के कुछ समझने से पहले ही 15 वीं घुड़सवार ब्रिगेड ने दोपहर 2 बजे हाइफा पर धावा बोल दिया।
उधर जोधपुर के सैनिक माउंट कार्मेल की ढलानों से हमला कर रहे थे, वहीं मैसूर के सैनिकों ने पर्वत के उत्तर तरफ से हमला किया। युद्ध की शुरुआत में ही भारतीय सेना के एक कमांडर कर्नल ठाकुर दलपत सिंह मारे गए। जिसके बाद उनके डिप्टी बहादुर अमन सिंह जोधा आगे आये। मैसूर रेजिमेंट ने दो मशीन गनों पर कब्ज़ा करके अपनी पोजीशन प्राप्त कर ली और इस तरह हाइफा में घूसने का रास्ता साफ़ हो गया।
हाइफा की लड़ाई में भारतीय सैनिकों ने आधुनिक हथियार और मशीनगन से लैस जर्मन और तुर्की सैनिकों को बुरी तरह हराया दिया।
भारतीय सैनिकों ने हाइफा को अपने कब्जे में लेकर 1350 जर्मन और तुर्की सैनिकों को बंदी बना लिया।
इस हाइफा की लड़ाई में 8 भारतीय सैनिकों को वीरगति प्राप्त हुई थी और 34 सैनिक घायल हुए थे। वहीं 60 घोड़े मारे गए और 83 घायल हुए थे। बाद में भारतीय सैनिकों की वीरता की याद में 1922 में यहाँ पर तीन मूर्ति स्मारक भी बनाया गया।
भारतीय सैनिकों के पराक्रम की ये घटना आज भी दुनिया के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है।