डाकू तहसीलदार सिंह – 90 के शुरूआती दशक में उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुलायम सिंह यादव का बोलबाला था.
या ये कहें कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में बाहुबल का बोला था. मुलायम सिंह यादव की पार्टी में गुंडों की भरमार थी. इसी के दम पर मुलायम सिंह यादव इटावा के आस पास के जिलों में बूथ कैप्चरिंग कर आसानी से अधिक मार्जन से चुनाव जीत जाते थे.
बताया जाता है कि यादव बहुल इस क्षेत्र में मुलायम सिंह का ऐसा आतंक था कि कोई उनके सामने चुनाव लड़ने की हिम्मत ही नहीं करता था. वहीं राम मंदिर आंदोलन में अयोध्या में कार सेवकों पर हुए गोलीकांड के बाद भाजपा को काशिश मुलायम सिंह यादव को उनके गढ़ में घेरने की थी.
ऐसे में मुलायम सिंह के बाहुबल को टक्कर देने के लिए भाजपा ने इटावा की जसवंतनगर विधान सभा से डाकू मान सिंह के पुत्र डाकू तहसीलदार सिंह को मैदान में उतार दिया.
बताया जाता है कि डाकू तहसीलदार सिंह समर्पण करने के बाद भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ली थी और मुलायम सिंह यादव के खिलाफ चुनाव लड़े थे लेकिन वे हार गये.
लेकिन इस चुनाव में एक ऐसा वाक्या हुआ जो लोगों को पता नहीं होगा. जब तहसीलदार सिंह को खबर मिली कि जसवंतनगर विधान सभा के एक बूथ पर मुलायम सिंह के लोगों ने बूथ कैप्चरिंग की है तो वे भी अपने दल बल के साथ वहां पहुंचे और उन्होंने बूथ से पूरी की पूरी मतपेठी उठा ली ओर उसे अपने साथ ले गए.
बहराल, ऐसा नहीं है कि भाजपा ने ही पूर्व डकैत तहसीलदार सिंह को मुलायम सिंह यादव के खिलाफ विधानसभा चुनाव में उतारा हो. बहुजन समाज पार्टी ने भी कई पुराने डकैतों जैसे राम सेवक पटेल, हरी प्रसाद वगैरह को चुनाव में टिकट दिया.
बाद में मुलायम ने दस्यु सुंदरी फूलन देवी को टिकट दिया और वह सांसद भी बनीं.
बताया जाता है कि पहले डाकू अपना बदला लेने के लिए चम्बल की घाटियों में शरण लेते थे. धीरे धीरे पैसा और ताकत उन्हें आकर्षित करने लगा. लूट-मार के बाद डकैतों की दिलचस्पी राजनीति में बढ़ने लगी. पहले राजनेता डकैतों को समर्थन देते थे फिर राजनीतिक दल भी उनसे समर्थन की आस लगाने लगे.
इसके बाद वो दौर आया जब डकैत सीधे चुनाव में उतरने लगे. सभी पार्टियों के लिए यह एक फायदे का सौदा साबित हो रहा था. क्योंकि
डकैतों का गिरोह भी राजनीति के तरह जाति-आधारित होने लगा था.