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दिल्ली में जब संसद के सामने संतों पर सेना ने चलाई थीं गोलियां ​

संतों पर गोलियां

भारत में कुछ मुद्दे ऐसे हैं जो राजनैतिक पार्टियों को तभी याद आते हैं जब चुनाव होने वाले होते हैं.

अभी हाल ही में देश के प्रधानमंत्री ने सभी के सामने बोला कि देश के 80 प्रतिशत गौ-सेवक नकली हैं.

लेकिन क्या प्रधानमंत्री को यह ज्ञान अभी प्राप्त हुआ है? क्योकि अगर नरेन्द्र मोदी यह बात आम चुनावों के वक़्त बोल देते तो शायद यही 80 प्रतिशत लोग किसी और को वोट देते.

लेकिन असल समस्या यह है कि देश की राजनैतिक पार्टियों को गाय, गंगा और राम की याद तभी आती है जब चुनाव हो रहे होते हैं.

ऐसा ही कुछ इंदिरा गाँधी की सरकार के समय हुआ था. चुनाव के समय वादा किया गया था कि देश में गौ-वध बंद कराया जायेगा. लेकिन इंदिरा गांधी की सरकार जब बन गयी तो वह अपना वादा भूल गयी थीं. तब देश में गाय की रक्षा के लिए एक बड़ा आंदोलन हुआ था. इस आंदोलन में हजारों की संख्या में संत महात्मा गाय की रक्षा के लिए संसद के सामने इकठ्ठा हुए थे और तब इन गौ भक्त संतों पर सेना ने गोलियां बरसा दी थी.

आज की पीढ़ी के युवा तो आजाद भारत के इस जलियावाले हत्याकांड से वाकिफ ही नहीं है.

तो आइये आज हम आपको बताते हैं कि आखिर क्यों इंदिरा गांधी ने संतों पर गोलियां चलाने का आदेश दिया था-

यह बात है सन 1966 की –

1966

इस हत्याकांड को जब अंजाम दिया गया था, तब साल 1966 चल रहा था और माह नवंबर था. संसद के सामने कई हजार साधू-संत इसलिए इकठ्ठा हुए थे ताकि आज देश में एक कानून ऐसा बने जो गाय के वध को रोकने वाला हो और देश में गाय राष्ट्रीय पशु घोषित हो सके. सभी जानते थे कि साधू संत खाली हाथ है और शांति पूर्वक मार्च करेंगे.

आपको जानकारी के लिए बता दें कि उस समय इंदिरागांधी प्रधानमन्त्री थीं और गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा थे.

जानकार लोग बताते हैं कि –

संतों पर गोलियां

सुबह से ही संत लोग गौ-हत्या बंदी के लिए जुटना शुरू हो गये थे.

इस आन्दोलन में बच्चे भी थे और महिलायें भी थी. तभी अचानक से कुछ अराजक तत्व संसद के बाहर वाहनों में आग लगा देते हैं. शांतिपूर्ण धरने का माहौल बिगड़ने लगता है. पुलिस और सेना मोर्चा सँभालने लगती है. कुछ अनहोनी की का अंदाजा सभी को होने लगता है. लेकिन आजाद भारत की राजधानी में जलियांवाला हत्याकांड फिर से दोहराया जायेगा, ऐसा अनुमान कोई नहीं लगा रहा था. पुलिस बिना किसी सुचना के सीधे संतों पर गोलियां चलाना शुरू कर देती है.

जो संत गाय के लिए शांतिपूर्ण आन्दोलन कर रहे थे, उनके पास भागने के अलावा और कोई चारा नहीं था.

कुछ ही देर में रास्ते पर बस लाशें ही लाशें नजर आने लगती हैं. बेकसूर संत लोग खून से लथपथ सड़क पर तड़पते देखे जा रहे थे. सरकारी आंकड़ा कुछ भी हो लकिन मरने वालों की संख्या कुछ 300 के पार बताई जाती है.

लेकिन आजाद भारत में गाय और संतों पर इस तरह से गोली कोई सरकार चलवा सकती है, इसका अंदाजा किसी को नहीं था. ऐसे में सवाल यह उठता है कि सेना और पुलिस ने इतनी बड़ी कारवाई किसके कहने पर की थी?

इंदिरा गांधी कुछ नहीं जानती थीं?

संतों पर गोलियां

इंदिरा गांधी बोलती रहीं कि मैं इस कारवाई के बारें में कुछ नहीं जानती हूँ. यह मेरे कहने पर नहीं हुआ है. वहीँ ऐसा ही कुछ गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा का भी ब्यान था.

तो सवाल यह उठता है कि तो ऐसे में संतों पर गोलियां चलाने का आदेश किसने सेना और पुलिस को दिया था?

संतों पर गोलियां किसने चलायी? इस सवाल का जवाब आज तक सही से कोई नहीं दे पाया है, लेकिन यह घटना सिद्ध करती है कि गाय और राम दोनों की राजनेताओं के लिए वोट बैंक के ही मुद्दे हैं. गाय का नाम लेकर कई नेता बड़े पदों तक पहुँच गये हैं. गाय की सेवा के नाम पर नेताओं के महल बन गये हैं लेकिन गौ-हत्या के ऊपर हिन्दुस्तान में आजतक एक कानून पास नहीं हो पाया है.

यदि सरकार चाहती है कि फर्जी गौ-रक्षकों पर रोक लगे तो सरकार को बस इतना करना है कि गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाये और गौ-हत्या बंदी कानून को जल्द से जल्द पास कर दिया जाये.