हल्दीघाटी का नाम सुनते ही जेहन में बस एक नाम आता है महाराणा प्रताप का.
अकबर की विशाल सेना से अंत तक हार नहीं मानी थी प्रताप ने. इस युद्ध में प्रताप के साथ मेवाड़ कि रक्षा के लिए बहुत से शूरवीर योद्धाओं ने अपने प्राणों कि आहुति दी थी.
एक तरफ जहाँ अकबर कि सेना का नेतृत्व मानसिंह कर रहा था तो दूसरी तरफ एक पठान महाराणा प्रताप की तरफ से मुघल सेना से लोहा ले रहा था.
ये एक ऐसे वीर मुस्लिम पठान की कहानी है जिसे इतिहास में भुला दिया गया है. लेकिन उसकी वीरता, शौर्य और बलिदान की गाथा आज भी सुनने वालों में जोश ला देती है.
ये कहानी है महाराणा प्रताप के मित्र हाकिम खान की . जिनकी तलवार से मुग़ल सेना थर थर कांपती थी. राजस्थान में हाकिम खान कि मज़ार है और हाकिम खान को पीर का दर्ज़ा दिया गया है.
पिछले दिनों कुछ असामाजिक तत्वों ने हाकिम खान कि मज़ार पर तोड़ फोड़ की.
कितने दुःख की बात है ऐसे वीर का मृत्यु के बाद इस तरह का अपमान.
हाकिम खान हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप के साथ साए कि तरह रहे थे. यही नहीं उन्होंने प्रताप कि सेना को युद्ध के महत्वपूर्ण दांव पेंच भी सीखाये थे.
हाकिम खान कि तलवारबाजी ऐसी थी कि उनकी तलवार के सामने आने से बड़े बड़े सूरमा भी घबराते थे.
हल्दीघाटी के युद्ध के समय हाकिम खान लड़ते लड़ते शहीद हो गए. उनका सिर कट कर गिर गया लेकिन उनका धड घोड़े पर ही रहा. मरने के बाद भी उनका सर कटा शरीर, हाथ में तलवार देखकर मुगलों के पसीने छूट गए.
कुछ दूर जाकर जहाँ उनका धड़ गिरा वहीँ पर उन्हें दफनाया गया.
हाकिम खान के साथ उनकी प्रसिद्ध तलवार को भी दफनाया गया. धीरे धीरे उस क्षेत्र के लोग उन्हें संत मानाने लगे. आज हाकिम खान को पीर का दर्ज़ा प्राप्त है. हिन्दू और मुसलमान दोनों उनकी मज़ार पर सजदा करते है.
हाकिम खान महाराणा प्रताप के तोपखाने के प्रमुख थे और साथ ही साथ युद्ध में सेना का नेतृत्व भी कर रहे थे. अपनी मातृभूमि और आत्मसम्मान के लिए वो इस युद्ध में शामिल हुए. ये एक अद्भुत बात थी कि मुग़ल सेना के सेनापति मानसिंह एक हिन्दू थे और महाराणा प्रताप की सेना कि बागडोर संभाली थी एक मुसलमान पठान ने.
इतिहास में हल्दीघाटी के युद्ध की तुलना थर्मोपाली के युद्ध से की जाती है. पांच घंटे चले इस भीषण युद्ध में महाराणा प्रताप ने अकबर कि सेना को नाकों चने चबवा दिए थे. इस युद्ध में ना किसी की हार हुई थी ना किसी कि जीत. लेकिन अकबर को ये समझ आ गया था कि महाराणा प्रताप को हराना आसान नहीं है.
इस युद्ध में 5000 मुग़ल और 3000 मेवाड़ के सैनिकों ने हिस्सा लिया. इस युद्ध में इतना खून बहा था कि युद्ध क्षेत्र को रक्त तलाई कहा जाने लगा था.
हाकिम खान जैसे वीर योद्धा को इतिहास में वो जगह नहीं मिली जिसके वो हकदार थे. लेकिन मेवाड़ में आज भी हाकिम खान का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है.