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आतंकवाद का धर्म या धर्म का आतंकवाद! आखिर क्या है सच?

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फ्रांस की राजधानी पेरिस में हुए आतंकी हमले के बाद एक बार फिर से ये बहस तेज़ हो गयी है कि क्या अब भी ये कहा जाए कि आतंवाद का कोई धर्म नहीं होता?

इस बात को लेकर लोग दो भागो में बंटे दिखाई देते है.

कुछ लोग कहते है कि अब इस बात का नाटक बंद होना चाहिए कि आतंकवाद का धर्म नहीं होता वहीँ दूसरी तरफ कुछ लोग कहते है कि ये आतंकवाद धर्म का नहीं पूंजीवादी विकसित देशों का फैलाया हुआ है.

आज हम ज़रा नज़र डालते है दोनों पहलुओं पर और पता लगाने की कोशिश करते है कि आखिर आतंकवाद का धर्म होता है या फिर धर्म ही वजह है आतंकवाद की?

ISIS

पेरिस में हुई घटना की जिम्मेदारी ISIS  ने ली है.

इस आतंकी हमले में करीब 130 से ज्यादा लोगों की मौत हो गयी. उसी दिन बेरुत में भी ISIS ने 44 लोगों की जान ली थी.

बहुत से लोग अलग अलग आतंकी घटनाओं के प्रति अलग अलग रवैय्या रखते है. इसका सबसे ताज़ा उदाहरण पेरिस हमले के बाद देखा गया खासकर हमारे देश भारत में.

पेरिस हमले से पहले तक हिन्दू तालिबानी जैसे शब्दों का उपयोग किया जा रहा था पर जैसे ही पेरिस और बेरुत में हमला हुआ और मासूम लोगों को मारा गया उसके बाद कहा जाने लगा कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता.

ये बात सही है कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता बेरुत और ईराक में ISIS का शिकार बने मासूम भी उन्ही के धर्म इस्लाम को मानने वाले थे.

लेकिन गौर करने वाली बात ये है कि ISIS या उसके जैसे तमाम आतंकी संगठन धर्म के नाम पर ही तो दुनिया में क़त्ल ए आम मचा रहे है.

अपने हर आतंकी हमले को हर हत्या को ये लोग मज़हबी रंग देते है.

यहीं पर हमारे विश्व समाज का दोगलापन ज़ाहिर हो जाता है, दुनिया के किसी कोने में हुई आतंकी घटना का विरोध होता है पर जब बात ISIS जैसे संगठनों की आती है तो अधिकतर इस्लामिक देश या तो दबी आवाज़ में दिखावे का विरोध करते है या फिर चुप रहना ही ठीक समझते है.

गलत का विरोध ना करना भी तो एक तरह से गलत का समर्थन करना ही है ना?

इस्लामिक देशों में शक्ति के शिखर पर बैठे लोग अपने फायदे के लिए ISIS जैसों  का विरोध नहीं करते बल्कि ऐसा भी हो सकता है कि परदे के पीछे से वो उनकी मदद भी करते हो. आखिर पूरी दुनिया में राज करना कौन नहीं चाहता ?

ऐसा नहीं है कि हर मुसलमान आतंकी है या हर हिन्दू गोडसे द्वारा गाँधी की हत्या का समर्थन करता है पर ये बात हमें माननी पड़ेगी की इन सब वहशियत के पीछे धर्म का एक बहुत बड़ा हाथ है.

शक्ति और नियंत्रण हर कोई चाहता है और धर्म के नाम पर, भगवान्, अल्लाह के नाम पर लोगों को कट्टर बनाकर अपना उल्लू सीधा करने के लिए तैयार करना सबसे आसान होता है.

लोग चाहे कितना भी पढ़ लिख ले समझदार बन जाये लेकिन अगर उनके ज़हन में धर्म की जड़ें गहरी है तो उनका ब्रेनवाश करना कोई मुश्किल काम नहीं.

यही तो कारण है कि चाहे आतंकवाद का समर्थन ना करे लेकिन याकूब मेमन या कयूम की मौत पर हजारों की तादाद में इकठ्ठा ज़रूर हो जाते है.

ये सब दोगलापन नहीं तो क्या है?

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ये मानने में कैसी शर्म या क्या हर्ज़ कि दुनिया में कहीं भी किसी भी प्रकार का आतंकवाद हो उसके तार कहीं ना कहीं से धार्मिक कट्टरता से ही जुड़े होते है. सारा पैसा, रिसोर्स, हथियार और अपनी जान लुटा देने वाले लोग सब धर्म के नाम की अफीम के नशे की बदौलत ही मिलते है.

अब समय आ गया है कि हम कट्टरता का खुलकर विरोध करें चाहे वो हिन्दू कट्टरता हो या इस्लामिक या किसी अन्य धर्म की.

दुसरे धर्म की कट्टरता का पुरजोर विरोध करना और अपने धर्म की कट्टरता की वजह से फैलते आतंक को तर्क दे देकर सही ठहराना भी आतंकवाद का समर्थन करना ही है.

आतंकवाद के समर्थन या विरोध में  हम धर्म और मज़हब के हिसाब से सेलेक्टिव नहीं हो सकते.

हाँ अगर बात अपने छद्म व्यवहार और झूठी इंसानियत का ढोल पीटने की है तो आप अपने अपने हिसाब से हर आतंकी घटना के बाद चुप रह सकते है या उसका विरोध कर सकते है.

समझने वाली बात अब बस इतनी ही है कि जब तक हम अपनी अपनी सहूलियत के हिसाब से आतंकवाद की अलग अलग परिभाषाएं और ट्रक छोड़कर एक साथ एक जुट होकर धार्मिक आतंकवाद और कट्टरता के विरुद्ध खड़े नहीं होंगे तो इसी तरह गोधरा जैसा वहशीपन और मुंबई हमले जैसी घटनाएँ होती ही रहेंगी.