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क्या हम ग़ुलाम ही अच्छे थे या आज़ादी हज़म नहीं हो रही हमसे?

freedom

ग़ुलामी की ज़िन्दगी से मौत भली!

शायद यही कारण था कि हज़ारों देशभक्तों ने हमारे देश को अंग्रेज़ों से आज़ाद करवाने के लिए हँसते-हँसते अपनी जान दे दी| ताकि आने वाली नस्लें एक आज़ाद हवा में जी सकें, अपने सपने पूरे कर सकें, देश को नयी ऊंचाईयों पर ले जा सकें|

लेकिन अगर अब हम अपने बीते हुए कल और आज पर नज़र डालें तो सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि आख़िर आज़ादी पा कर हासिल भी क्या किया हमने? शायद इस से अच्छी तो ग़ुलामी ही थी! जी हाँ, ये बात शायद आपको बुरी लग सकती है, आपको गुस्सा भी आ सकता है लेकिन ज़रा ठन्डे दिमाग से आस-पास के हालात पर नज़र डालिये और सोचिये कि हमारे देश में चल क्या रहा है|

ग़ुलामी के वो 200 साल अंग्रेज़ों द्वारा किये गए अत्याचारों की कहानियों से भरे हुए हैं| लेकिन सोच के तो देखिये, उन्ही 200 सालों में हज़ारों छोटे-छोटे राज्यों ने एक होकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी| हर किसी ने बिना अपनी धर्म-जात सोचते हुए सिर्फ देश को प्राथमिकता दी| एक आवाज़ एक शक्ति बन गए थे हम लोग!

और आज़ादी के बाद? हर छोटे-बड़े हिस्से से आवाज़ें सिर्फ़ अपनी जात-धर्म की सुनाई देती हैं| वो राजनेता आज नहीं मिलते जो देश को एक कर सकें बल्कि सब के सब देश को छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँटने पर तुले हुए हैं| वोट-बैंक की राजनीती में देश का नंबर आख़री है! और इस पतन के लिए जनता भी ज़िम्मेदार है| क्या हम अपनी ज़िम्मेदारियाँ समझते हैं? अंग्रेज़ों की ग़ुलामी में कुछ काम शायद ज़बरदस्ती करवाये जाते थे पर आज हम प्रजातंत्र की दुहाई देते हुए वही करते हैं जो हमारे लिए ज़रूरी है, देश जाए भाड़ में! कभी भी हड़ताल कर देना, सड़क पर गाड़ी ठीक से नहीं चलना, रिश्वत माँगने वालों को कोसना लेकिन रिश्वत देने में सबसे आगे होना, अपने धर्म का बोल बाला करना और दूसरे धर्मों को नीचे दिखाना, पढ़-लिख के भी अनपढ़ों जैसा व्यवहार करना, यह सब हमारी आदत बन चुका है| और अगर कोई ग़लती से सवाल पूछ ले कि भाई यह कर क्या रहे हो? क्यों कर रहे हो? तो झट से प्रजातंत्र और संविधान में दिए गए अपने हक़ का झंडा लहरा देना!

अपने-अपने हक़ के लिए हर कोई लड़-मर रहा है लेकिन अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभाने की बात आये तो वो हमारी नहीं, दूसरों की हैं! इस से अच्छा तो वो डंडे का राज ही था जब पूरे देश ने एक होके चलना सीख लिया था! जब सभी आवाज़ें देश के लिए उठती थीं, जब आँसू इंसानियत के लिए बहाये जाते थे, जब खून अन्याय के ख़िलाफ़ बहता था, जब ‘तू’ और ‘मैं’ से ज़्यादा ज़रूरी ‘हम’ हुआ करता था!

एक बात तो तय है कि अगर हम अपनी आज़ादी का यूँ ही ग़लत फ़ायदा उठाते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब फिर से देश छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट जाएगा! वक़्त की ज़रुरत है कि हम ज़िम्मेदार बनें, इस धर्म-जात की पिछड़ी हुई सोच को नकारते हुए इंसानियत की ताज़ा-तरीन सोच को अपनाएँ और सब एक होकर, मिल कर कोशिश करें देश को नयी सफलताएँ दिलाने की! देश सफ़ल तो हम भी सफ़ल, है ना?

चलिए एक बार फिर कोशिश करें छोटी मानसिकता की ग़ुलामी से देश को आज़ाद करवाने की!