देश प्रेम और देशभक्ति…
आज ये शब्द मात्र किताबों की ही बात लगने लगे हैं.
देश के टुकड़े होंगे इंशाअल्लाह और अफजल तेरे कातिल जिंदा है. आज इंकलाब जिंदाबाद की जगह दूसरे तरह के नारों ने जगह बना ली है. सीमा पर लड़ रहे जवानों के अलावा देश भक्ति सिर्फ बचपन की बात हो गयी है.
आज जिस खुली आजादी की हवा हम प्रयोग कर रहे हैं उसके लिए कई भारतीय योद्धाओं ने अपनी कुर्बानी दे रखी हैं. ऐसा ही एक योद्धा 1857 की क्रांति में पैदा हुआ था. उम्र के हिसाब से तो आप इसको वृद्ध बोल सकते हो लेकिन जब इनकी वीरता की कहानी आप जान जायेंगे तो आप इनको बूढ़ा समझने की गलती बिलकुल नहीं करोगे.
80 वर्षीय स्वतंत्रता प्रेमी योद्धा कुंवर सिंह
10 मई 1857 की क्रांति को भला कोई कैसे भुला सकता है.
अंग्रेजों ने दिली पर कब्ज़ा कर लिया था और तभी विद्रोह की आग देश में लग चुकी थी. अंग्रेजो द्वारा दिल्ली पर पुन:अधिकार कर लेने के बाद बाद भी 1857 के महासमर की ज्वाला अवध और बिहार क्षेत्र में फैलती धधकती रही . दानापुर की क्रांतिकारी सेना के जगदीशपुर पहुंचते ही 80 वर्षीय स्वतंत्रता प्रेमी योद्धा कुंवर सिंह ने शस्त्र उठाकर इस सेना का स्वागत किया और उसका नेतृत्त्व संभाल लिया. तब इनको धन और साथियों की बेहद ज्यादा जरूरत थी. धन के लिए अंग्रेजों को लुटना था और साथियों के लिए जेल में बंद साथियों को बाहर निकालना था.
कुंवर सिंह के नेतृत्त्व में इस सेना ने सबसे पहले आरा पर धावा बोल दिया. क्रांतिकारी सेना ने आरा के अंग्रेजी खजाने पर कब्जा कर लिया. जेलखाने के कैदियों को रिहाकर दिया गया.
अगली बार जब अंग्रेजी सेना ने किया हमला
अंग्रेजी सेना से कुंवर सिंह की अगली भिडंत आजमगढ़ में बताई जाती है. अंग्रेजी कमांडर मिल मैन ने 22 मार्च 1858 को कुंवर सिंह की फ़ौज पर हमला बोल दिया था. बोला जाता है कि यह हमला अचानक धोखे से किया गया था. हमला होते ही कुंवर सिंह की सेना पीछे हटने लगी अंग्रेजी सेना कुंवर सिंह को खदेड़कर एक बगीचे में टिक गयी. लेकिन यहाँ अंग्रेजों को जैसे का तैसा ही प्राप्त हुआ. जिस समय मिल मैन की सेना भोजन कर रही थी, उसी समय कुंवर सिंह की सेना अचानक उन पर टूट पड़ी. मैदान थोड़ी ही देर में कुंवर सिंह के हाथ आ गया. मेल मैन अपने बचे खुचे सैनिको को लेकर आजमगढ़ की ओर निकल भागा.
इस हार के बाद अंग्रेजों ने एक बार फिर से कुंवर सिंह पर हमला किया और इतिहास बताता है कि इस बीच काफी छोटी लड़ाईयां तो हुई थी जो कुंवर सिंह जीतते रहे थे किन्तु एक भयंकर युद्ध भी हुआ जिसमें 1000 अंग्रेजी सैनिकों में से मात्र 80 ही बच पाए थे.
एक लड़ाई में जख्मी होना पड़ा भारी
सभी लड़ाईयां जीतते हुए एक बार कुंवर सिंह जख्मी हुए और यह चोट इनकी जान जाने की वजह बन गयी 26 अप्रैल 1858 को यह बहादुर योद्धा चल बसा और आजादी की इसकी लड़ाई यहीं रूक गयी.
किन्तु कितने शर्म की बात है कि आज हमको वास्को डी गामा और लार्ड मैकाले तो याद है.
इनको हमारे बच्चे किताबों में भी पढ़ रहे हैं किन्तु कुंवर सिंह जी जैसे योद्धा की वीर गाथा के लिए हमारे पास समय नहीं है.
इससे ज्यादा देश का दुर्भाग्य और कुछ नहीं हो सकता है
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